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अनुशिष्टि महाधिकार स्रोतसा नौयमानस्य यावदाशासुखं भवेत् । पादांगुष्ठे क्षितिस्पर्श तावद्भोगसुखं स्फुटम् ॥१३२१॥ येऽनंतशोऽङ्गिना भुक्ता भोगाः सर्वे त्रिकालगाः । को नाम तेषु भोगेषु भुक्तस्यक्तेषु विस्मयः ।।१३२२॥ यथा यथा निषेव्यन्ते भोगास्तृष्णा तथा तथा। भोगा हि वर्षयम्से तामिघनानीव पायकम् ॥१३२३॥ भज्यमानश्चिरं भोगस्तृप्तिर्नास्ति शरीरिणाम् । उत्पूरमुखतं चितं विना तृप्त्यात्र जायते ॥१३२४।। नदीजलरिबांभोधि-विभावसुरिवेंधनैः । सेव्यमानेरयं भोगेर्न जीवो जातु तृष्यति ॥१३२५।।
--...-.. ..-.-.की कमी होनेसे सुख प्रतीत होता है उसको जितना छाया संबंधी सुख है उतना भोग सेवन में सुख है ।।१३२०॥
अथवा नदी प्रवाह द्वारा बहते जा रहे व्यक्तिका कदाचित परके अंगुठेका जमीनमें स्पर्श हो जानेपर आशा संबंधी जितना सुख होता है (जमोनका स्पर्श हो गया है अब मैं प्रवाहसे निकल जावूगा इसतरहको आशाका सुख) उतना भोग संबंधी सुख है ऐसा स्पष्ट रूपसे समझना चाहिये ।।१३२१।। ।
इस संसारी प्राणो द्वारा तीन काल संबंधी संपूर्ण भोग अनंतबार भोगे जा चुके हैं उन भोगकर छोड़े हुए-उच्छिष्ट भोगों में क्या उत्सुकता? क्या आश्चर्य ? अर्थात् जो अतिपरिचित हैं उच्छिष्ट हैं उन पदार्थोकी प्राप्ति में आश्चर्य या उत्सुकता नहीं होनी चाहिये ॥१३२२॥
जैसे जैसे भोग भोगे जाते हैं वैसे वैसे तृष्णा बढ़ती है क्योंकि भोग तृष्णा को बढ़ाने वाले होते हैं, जैसे ईन्धन अग्निको बढ़ानेवाला होता है ॥१३२३॥
संसारी जोवोंके चिरकाल तक भोग भोगते हुए भी तृप्ति नहीं होती और तृप्ति हुए बिना चित्त उन भोगों में पुनः पुनः अत्यंत उत्कंठित ही रहता है ॥१३२४।।
जिसप्रकार नदियोंके जल द्वारा समुद्र तृप्त नहीं होता [भरता नहीं] ईन्धनों द्वारा अग्नि तृप्त नहीं होती (ईन्धनको जलाना नहीं छोड़ती अथवा नहीं बुझती) उस