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मरणाकण्डिका
भोगेष भोगिगोरखबलकेशव चक्रिणः । न तृप्तिं ये तु गच्छति तत्र तृप्यंति किं परे ।।१३२६।। व्याकुलो भवति प्रामी ग्रहण रक्षण नाशे संपवि तस्तस्य भोगायोत्कंठितश्चलः ।।१३२७।। व्याकुलस्य सुखं नास्ति कुतःप्रीतिविना सुखम् । कुतो रतिविना प्रोसिमुत्कंठां वहतः परम् ।।१३२८।।
प्रकार यह जीव भोगोंका सेवन करते हुए भी उन भोगोंसे कभी भी तृप्त नहीं होता । है ।।१३२५।।
भोगभूमिके मनुष्य, देव, बलदेव, नारायण और चक्रवर्ती ये बड़े बड़े समृद्धशाली अतुल भोग संपदावाले पुरुष भी भोगोंमें तृप्तिको प्राप्त नहीं हुए तो फिर अल्प बल, अल्प आयु और अल्प भोग सामग्री वाले मनुष्य तृप्त हो सकते हैं क्या ? नहीं हो सकते ।।१३२६॥
यह संसारी प्राणी धनके ग्रहण करने में व्याकुल होता है तथा रक्षण और अर्जनमें भी व्याकुल होता है यदि धनका नाश हो जाय तो उसको पुनः प्राप्ति के लिये व्याकुल होता है । प्राप्त भोगोंके लिये उसका मन सदा उत्कंठित रहता है कि यह भोगू यहांपर अमुक वस्तु है उसको शीघ्र ही लाना चाहिये । इसप्रकार धनके कारण चित्त सदा चंचल बना रहता है ॥१३२७॥ ।
___ धन के उपार्जनमें, उपार्जित धन की सुरक्षामें एवं ग्रहणमें सर्वत्र ही व्याकुलता रहती है, व्याकुलित पुरुषके सुख हो नहीं सकता और सुख के बिना प्रीति कहांसे होवे ?
और जब प्रीति नहीं है तो रति भी नहीं है, इसतरह उस कामुकके अतिशय रूपसे केवल उत्कंठा हो रहती है ।।१३२८॥
इसतरह स्त्री संबंधी भोगोंको निःसार जानकर साधु पुरुषोंको चाहिये कि वे स्त्री आदि की संगति को छोड़े यदि उन्हें रमनेकी ही इच्छा है तो कहां रमे ? सो बताते हैं
जो वास्तविक सुखके विपक्षरूप है ऐसे स्त्री धन आदिकी संगतिका त्याग कर दिया है जिसने और रमनेकी है इच्छा जिसे उस पुरुषको निरंतर मोक्षके सुखके कारण