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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३८७ छंद-वंशस्थनिरस्तदाराविविपक्षसंगती रिरंसुरध्यात्मसुखे निरंतरम् । रति विधत्तां शिवशर्मकारणे तया समा नास्ति जगत्त्रये रतिः ॥१३२६।। स्वस्थाध्यात्मरतिर्जन्तोनॆव भोगरतिः पुनः । भोगरत्यास्ति निर्मुक्तो परया न कदाचन ॥१३३०॥ नाशो भोगरतेरस्ति प्रत्यहाश्च सहस्रशः । नाशोऽध्यात्मरतेनास्ति न प्रत्यूहाः कुतश्चन ॥१३३१॥ कुर्वन्तो देहिनां दुःखं जायते यदि शत्रवः । तदानीं न कथं भोगा लोकद्वितयदुःखदाः ॥१३३२॥
भूत ऐसे अध्यात्म सुख में रति करना चाहिये । उस अध्यात्म सुख में जो रति है उस रतिके समान तीन लोकमें कोई भी रति नहीं है अर्थात् सर्वोत्कृष्ट रति वही है ।।१३२६।।
अपने स्वस्थ स्वभावी अध्यात्ममें जीवोंको जो रति होती है वैसी भोगों में होनेवाली रति नहीं है क्योंकि भोगरतिसे तो निमुक्त हो जाता है किन्तु अध्यात्मरतिसे कभी भो निमुक्त नहीं होता अर्थात् अध्यात्मरति स्वाधीन है उसमें थकावट आदि नहीं है स्वभावभूत होनेसे सदा सर्वथा ही साथ रहती है, इससे विपरोत भोगरति पराधीन है एवं उसमें थकावट भो होतो है अतः उससे मुक्त होना होता है ।।१३३०।।
भोगरतिका नाश होता है तथा उसमें हजारों विघ्न बाधायें आती हैं, किन्तु अध्यात्मरतिका नाश नहीं होता तथा उसमें किसी कारण विध्न भी नहीं आते हैं अथवा भोगरतिसे आत्माका नाश होता है अध्यात्म रतिसे आत्माका नाश नहीं होता, भोगरति नश्वर है अध्यात्म रति अविनश्वर ह ऐसा दोनोंमें महान् अंतर है ।।१३३१॥
जो जीवोंको दुःख उत्पन्न करते हैं उन्हें यदि शत्रु माना जाता है तो इस लोक और परलोक में दुःख देनेवाले भोग किसप्रकार शत्रु नहीं हैं ? अर्थात् वे शत्रु ही हैं ।।१३३२।।