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________________ भरणकण्डिका सत्रयो यान्ति मित्रत्वामिह वामुत्र वा भवे । मित्रत्वं प्रतिपद्यन्ते मोगा लोकद्वयेऽपि नो ॥१३३३॥ वैरिणो देहिनां दुःखं यच्छन्त्येकत्रजन्मनि । संततं दुस्सहं दुःखं भोगा जन्मनि जन्मनि ॥१३३४।। निवानी प्रेक्षते भोगाम्न संसारमनारतम् । मध्येव प्रेक्षते पातं तटस्थायो न दुस्सहम् ।। १३३५॥ भोगमध्ये प्रदोव्यन्ति जन्मदुःखमनारतम् । अपश्यंतो मृतित्रास जाल मध्ये झषा इव ॥१३३६।। इसप्रकार आचार्य क्षपक को उपदेशामृत पिला रहे हैं । क्षपकके मन में कहीं पर भी भोग आदिकी वांच्छा न रह जाय, इन्द्रिय सुख की इच्छाको कणिका मात्र भी न रहे इसतरहका आचार्य प्रयास कर रहे हैं । आगे और भी समझाते हैं जो शत्रु है वह इस जन्म में या अन्य जन्ममें मित्र भावको प्राप्त हो जाता है किन्तु भोग तो इस जन्म और पर जन्म दोनों में मित्रत्वको प्राप्त नहीं होते हैं अर्थात जो ये बाहिरी शत्रु हैं वे कार्यवश शत्रुब छोड़ देते हैं और मित्रता का व्यवहार करने लग जाते हैं परन्तु भोग सदा शत्रु रूप ही रहते हैं-उनसे दुःख ही मिलता है ॥१३३३।। बैरी जीवोंको एक जन्ममें दुःख देते हैं किन्तु भोग जन्म जन्ममें सतत् दुःसह दुःख ही देते हैं ।।१३३४।। निदान करनेवाला व्यक्ति भोगोंको देखता है अर्थात् उनके स्वादमें लगा रहता है दीर्घ संसारको नहीं देखता अर्थात् भोगसे मुझे बहुत कालतक संसार में रुलना पड़ेगा इस बात को नहीं सोचता है । जैसे कूपके तटभाग पर स्थित कोई अज्ञानी मक्खियोंके छत्तेसे गिरते हुए मधुको हो देखता है स्वाद लेता है किन्तु कूपमें बुरी तरहसे गिर जाऊंगा इस बात को नहीं देखता-सोचता ।।१३३५॥ यह संसारी प्राणो सतत् रूपसे होनेवाले जन्मोंके दुःखको नहीं देखते हुए भोगों के मध्य में रमता है । जैसे मीन मरणके त्रासको नहीं देखते हुए धीवरके जाल में क्रीड़ा करती है ॥१३३६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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