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________________ अनुशिष्टि महाधिकार प्राप्यापि कृच्छ्रतो जीयो देवमानव संपवम् । प्रवासी निजं स्थानं कुयोनि याति निश्वितं ।। १३३७॥ किं करिष्यति से होगा सौचिचात सुशियां किं कुर्वन्ति सुता वैद्या त्रियमाणस्य देहिनः ।। १३३८|| संसारं पुनरायान्ति निदानेन नियंत्रिता: । दूरं यातोऽपि पक्षीव रश्मिना निजमास्पदम् ।।१३३६॥ अधमर्णो निजे गेहे रोषमुक्तो सुखं वसेत् । वत्वार्थं समये प्राप्ते यथा मूयो निरुध्यते ॥ १३४० ।। [ ३८६ यह जीव देव और मनुष्योंकी संपत्तिको बड़े कष्टसे प्राप्त करता है और प्राप्त करके भी नियमसे पुनः कुयोनि-नरक तिर्यंच गतिमें चला जाता है । जैसे प्रवासी कुछ समय तक परदेशमें रहकर पुनः अपने स्थान पर चला जाता है ।। १३३७ ।। भावार्थ - प्रवासी पुरुष कार्यवश अन्य देश में जाता है और कुछ ही काल बाद पुनः अपने देश गृह में लौट आता है, इसोप्रकार संसारी प्राणी देव और मनुष्य पर्याय में अल्पकाल रहता है और नरक व तिर्यंच पर्याय में बहुत अधिक काल रहता है, क्योंकि सबसे अधिक रहनेका काल तिच गतिका है वहां पर यह जीव अनंतकाल तक सतत् रह सकता है, प्रायः रहता है । जब यह मोही प्राणी विषय भोगके कारण खोटी योनि में चला जाता है वहां वे भोग क्या सहायता करेंगे ? जैसे मृतक वैद्य मरते हुए जीवका क्या उपकार - चिकित्सा करते हैं ? कुछ भी नहीं करते हैं, वैसे भोग परलोकमें कुछ भी काम में नहीं आते हैं ।। १३३८ ।। निदान द्वारा नियंत्रित किये प्राणी पुनः पुनः संसारमें आते हैं- पुनः पुनः जन्म धारण करते हैं, जैसे बहुत दूर तक उड़कर गया हुआ भी पक्षो रस्सी द्वारा नियंत्रित होने से पुनः अपने स्थानपर आजाता है ।। १३३ ।। जैसे कर्जदार पुरुष कुछ धन देकर बंधन मुक्त हो कुछ समयके घर में सुखपूर्वक रहता है और कर्ज लोटानेका समय प्राप्त होनेपर पुनः जाता है ।। १३४० । लिये अपने बंधन में आ
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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