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________________ ३९० ] मरणकण्डिका इबानी चरणं कृत्वा सुखं भुक्त्वाऽवतिष्ठते । त्रिविबे समये प्राप्ते तथा याति पुनर्भवम् ।। १३४१।। देवश्चकी सुख भुक्त्वा सभूतो हि निदानतः । निरंतरं महादुःखं प्राप्तश्च प्रतिवासितम् ॥१३४२।। भावार्थ-कारागृहमें कैद किया हुआ मनुष्य इतने दिन के बाद मैं तुम्हारा द्रव्य देकंगा इस समय मुझे अपना द्रव्य देवो ऐसा कहकर उनसे धन लेकर उसको कैदमें रखनेवालोंको देकर अपनी मुक्ति कर लेता है किन्तु पुनः बह धनिक कर्जदारको पकड़ लेता है। ठीक उसीप्रकार निदान करनेवाला मुनि इससमय चारित्र पालन करके स्वर्ग में जाकर सुख भोगता हुआ रहता है किन्तु समय आनेपर पुनर्भवको-संसार भ्रमण को प्राप्त होता है । देखा ! संभूत नामके पुरुषन निदानपूर्वक तपश्चरण किया था उससे स्वर्ग में देव बनकर चक्रवर्ती बना वहां सुख भोगकर नरकमें निरंतर महादुःखको प्राप्त हुआ था ।।१३४१।।१३४२।। संभूतको कथावाराणसी नगरीमें दो भाई रहते थे बड़े भाईका नाम चित्त और छोटे भाई का संभूत था । ये दोनों नृत्यकलामें अति निपुण हुए । स्त्रीका वेष लेकर जब वे नत्य करते तब सब जनता अत्यंत मुग्ध होतो, कोई भी नहीं पहिचानता कि ये दोनों पुरुष हैं । नृत्यकला ही इन दोनोंकी आजीविका थी। किसो दिन दिगंबर जैन मुनि गुरुदतके मुखकमलसे श्रेष्ठ जनधर्मका उपदेश सुनकर दोनों भाईयोंको वैराग्य हुआ और उन्होंने उन्हीं गुरुदेव के निकट देगंबरी दीक्षा ग्रहण को । गुरु चरण के समोए समस्त आगमका अभ्यास किया अब दोनों मुनि सर्वत्र देशोंमें विहार करते हुए तपस्या करने लगे। उनको उग्न तपस्यासे प्रसन्न हुआ कोई देव चक्रवर्तीका रूप धारण करके मुनियुगल की सेवा करने लगा। चक्रवर्तीका वैभव देखकर संभूत नामके छोटे मुनिने निदान किया कि मैं अपनी इस श्रेष्ठ तपस्या द्वारा आगामी भवमें चक्रवर्ती बनू । यथासमय मरणकर संभूत मुनि प्रथम सौधर्म स्वर्गमें देव बना और वहांसे च्युत होकर भरत क्षेत्रका इस अवसर्पिणो कालका अंतिम बारहवां
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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