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________________ [ ३६१ अनुशिष्टि महाधिकार प्रतर्पकमविश्राम भोगसौख्यं विनावरम् । दुरंतं सर्वथा त्यक्त्वा मुक्तिसौख्ये मतिं कुरु ।।१३४३॥ विशोध्य दर्शनशानचारित्रत्रितयं पतिः । निनिदानो विशुद्धात्मा कर्मणां कुरुते क्षयम् ॥१३४४॥ दोषानिति सुधोर्बुद्ध्या निदानं विदधाति नो । जातानो दारुणं मृत्यु को हि भक्षयते विषम् ।।१३४५।। लपति पातकलोपि चरित्रं सिद्धिसुखं विधुनोति पवित्रम् । देहयतामुरुदोषनिधानं कि कशलो न शृणाति निदानम् ।।१३४६।। - - चक्री ब्रह्मदत्त नामका हुआ। निदान द्वारा प्राप्त वैभवमें अत्यंत आसक्ति होने के कारण ब्रह्मदत्त आयुके अंत में मरकर नरक में चला गया। इसप्रकार संभूत मूनिने निदान द्वारा अपनो सारभूत तपस्याको नष्ट किया और अंतमें कुगतिमें चला गया । अतः कभी भी भोगादिका अप्रशस्त निदान नहीं करना चाहिये । कथा समाप्त । इसप्रकार भोगसे उत्पन्न होनेवाला सुख अतृप्तिरूप है, विश्राम रहित है, विनश्वर और अंतमें कटुक फल देनेवाला है ऐसा जानकर हे क्षपक ! तुम इसे सर्वथा छोड़ दो और अपनी बुद्धिको मुक्ति सुख में लगाओ-मुक्ति प्राप्ति हो ऐसा प्रयत्न करो ।।१३४३।। निदानके दोष बतलाकर निदान नहीं करने में होनेवाले गुणोंको कहते हैं मनिराज दर्शन, ज्ञान और चारित्र इन तीनोंको भलीप्रकार शोधन करके, निदान रहित विशुद्धात्मा होकर कर्मोका क्षय करते हैं ॥१३४४॥ बुद्धिमान व्यक्ति इसप्रकार दोषोंको जानकर निदानको कभी भी नहीं करता है, क्योंकि ऐसा कौन पुरुष है जो दारुण-मृत्युको जानता हुआ विषको खाता है ? ११३४५।। यह निदान जीवोंके पापोंका नाश करने वाले चारित्रको लूट लेता है पवित्र सिद्धिसुख नष्ट कर डालता है, ऐसे बड़े बड़े दोषोंके भंडारस्वरूप निदान बंधको कौनसा
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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