________________
३६२ ]
मरण कण्डिका
पालोचनाधिकारस्य मायाशल्यस्य दूषणं । उक्त मिथ्यात्वशल्यस्य मिथ्यात्ववमनस्तवे । १३४७।। मायाशस्येन ही बोधेः प्रभ्रष्टा कथितानना। दासी सागरदत्तस्य पुष्पदंताजिका भवे ॥१३४८॥
कुशल पुरुष नष्ट नहीं करेगा ? अर्थात् बुद्धिमान् निदान को कभी भी नहीं करता है ।।१३४६।।
निर्यापक आचार्य क्षपकको उपदेश दे रहे हैं, उस उपदेशके अंतर्गत पहले आलोचनाका कथन करते समय माया दोष या शल्यका त्याग करनेको कहा था तथा मिथ्यात्वका वमन करे । इसप्रकारके मिथ्यात्वके त्यागके लिये भी कहा था । अब यहां शल्य त्यागके अधिकारमें आचार्य पुनः क्षपकको स्मरण करा रहे हैं कि भो क्षपक ! मैंने तुमको आलोचनाका कथन करते हुए मायाशल्यके दूषण बतलाये हैं। अतः उनका स्मरण कर त्याग करदो ।।१३४७॥
सागरदत्त सेठकी दुर्गंधित मुखपाली दासी पुष्पदंता नामकी आर्थिकाके पर्यायमें माया शल्यके कारण ही बोधिसे-सम्यक्त्व एवं दीक्षा रूप बोधिसे भ्रष्ट हो गयी थी ॥१३४८।।
पुष्पदंता आर्यिकाको कथाअजितावर्त्त नगरके राजा पुष्पचूलको पट्टरानोका नाम पुष्पदंता था । किसी दिन संसारसे विरक्त हो राजाने दैगंबरी दीक्षा ग्रहण की। देखादेखी पुष्पदंताने भी ब्रािला आयिका प्रमुखके निकट आर्यिका दीक्षा ली किन्तु इसे अपने रूप, सौभाग्य पदरानी पदका बहुत अभिमान था जिससे वह किसी अन्य आर्यिकाका विनय नहीं करतो न किसीको नमस्कार करतो सदा अपनो उच्चताका प्रदर्शन करती रहती । अपने शरोरमें सुगंधित तैलादिका संस्कार करतो । एक दिन गणिनो ब्रह्मिला प्रायिकाने उसे बहुत समझाया कि देखो ! आर्यिका पदमें ऐसा शरीर संस्कार वर्जित है तथा तुम्हें गुरुजनोंका, आर्यिकानोंका विनय करना चाहिये इत्यादि । किन्तु पुष्पदंताने मायाचारसे असत्य वचन कहा कि मेरे शरीर में निसर्गतः सुगंधी प्राती है मैं कुछ नहीं लगातो इत्यादि । इस मायाचार के साथ उसकी मृत्यु हुई अर्थात् उसने अंततक माया शल्यको नहीं छोड़ा। फलस्वरूप वह चंपापुरीके सेठ सागरदत्तके यहां दासी होकर जन्मी।