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________________ अनुशिष्ट महाधिकार विद्धो मिथ्यात्वशल्येन धार्मिको वत्सलाशयः । मरोचिरभ्रमद्धोमे चिरं संसारकानने ॥१३४६॥ छंद बंशस्थनिवानमायाविपरीतदर्शनविदार्यतेऽगी निशितैः शरैरिव । विबुध्य दोषानिति शुद्धबुद्धयनिषापि शल्यं दवयन्ति यत्नतः ।।१३५०॥ जन्मसे ही उसका शरीर दुगंधमय था अतः उसका नाम पूतिगंधा रखा गया । इसप्रकार मायाचारके कारण पुष्पदंताको नीचकुल में नीच कार्य करना पड़ा। दुर्गन्धमय शरीरका कष्ट भोगना पड़ा । अत: माया शल्यका त्याग करना चाहिये। कथा समाप्त । जो धार्मिक था साधु संघमें वत्सल भावयुक्त या ऐसा गुणवान् मरीचि मिथ्यात्व शल्यसे युक्त होने के कारण चिरकाल तक भयानक संसार वन में भटकता रहा था ।।१३४१।। निदान शल्य, माया शल्य और मिथ्यात्व शल्य इन शल्यों द्वारा यह प्रारणी इसप्रकार विदीर्ण किया जाता है कि मानो पंने नुकीले बाणों द्वारा हो विदीर्ण हुआ हो, अतः इन शल्योंके दोषोंको जानकर शुद्ध बुद्धिवाले पुष प्रयत्नपूर्वक मन वचन कायसे सदा हो शल्यको दूर कर देते हैं । शल्यको कभी भी नहीं करते हैं ।।१३५०।। ___ मरीचि की कथा । आदिनाथ तीर्थकरके जेष्ठ पुत्र भरत चक्रवर्तीके हजारों पुत्रोंमें एक मरीचि. कुमार नामका पुत्र था । आदिनाथ भगवान् जब विरक्त होकर दीक्षित हुए तब उनके साथ यह मरीचि भी दोक्षित हुआ था किन्तु क्षुधा आदिसे पीड़ित होकर अन्य राजाओं के समान यह भी भ्रष्ट हो गया । वृक्षको छाल पहन कर जटाधारी तापसी बन गया आत्मा सर्वथा शुद्ध है, भोक्तामात्र है, कर्त्ता नहीं, कर्त्ता तो प्रकृति है इत्यादि सांख्याभिप्रायानुसार मिथ्यात्वका चिरकाल तक प्रचार करता रहा ! वृषभदेवको केवलज्ञान प्राप्त होने के अनंतर उन भ्रष्ट राजाओंने समवशरणमें दिव्यध्वनिको सूनकर जिनदीक्षा ग्रहण की किन्तु मरोचिने तो मिथ्यात्वके कारण नहीं लो । आयुके अंतमें मरकर वह स्वर्ग में देव हुआ। पुनः मनुष्य लोक में ब्राह्मण कुल में उत्पन्न होकर पूर्वभवके संस्कारवश उसी मिथ्यामसमें परिव्राजक साधु बन गया । पुनः स्वर्ग गया। इसके अनंतर यत्र तत्र चारों गतियोंमें, चौरासी लाख योनियोंमें, अस स्थावर पर्यायों में चिरकाल तक-इक्कीस
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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