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________________ ३६४ ] मरसाकण्डिका प्रवज्यागंत्रिका गुप्तिचक्रां ज्ञानमहाधुरं । समित्युक्षाणमारुह्य क्षपको दर्शनादिकम् ॥१३५१।। प्रस्थितः साधुसार्थेन व्रतभांउभृता सह । सिद्धि सौख्यमहाभांडं ग्रहीतु सिद्धिपत्तनम् ॥१३५२॥ सार्थः संस्क्रियमाणोऽसौ भोमां जन्ममहाटवीम् । प्राचार्य सार्थवाहेन महोयोगेन लंघते ॥१३५३।। --------- -- . - - ....-. - .... हजार वर्ष कम एक कोटा कोटी सागर प्रमाण कालतक भटकता रहा। पुनः सिंहकी पर्याय में चारणऋद्धिधारी मुनियुगलसे धर्मोपदेश सुनकर सम्यक्त्वको ग्रहण किया और महादुःखदायी मिथ्यात्वका त्याग किया । आगामी कुछ भवोंके अनंतर अंतिम तीर्थंकर भगवान् महाबोर बनकर सिद्धपद पाया। इसप्रकार मरीचिने मिथ्यात्व शल्यके कारण घोर कष्ट सहा । कथा समाप्त । आचार्य क्षपक एवं साधु समुदायको महावत आदिका निर्दोष परिपालन करने के लिये उपदेश दे रहे हैं उसमें साधुपदकी प्रशंसा करते हैं जिनदीक्षा एक वाहन या गाड़ी स्वरूप है जिसमें मनोगुप्ति आदि तीन गुप्तिरूप चक्र-पहिये लगे हुए हैं, वह ज्ञानरूपी महा धुरासे युक्त है, समिति रूपी बैलोंके द्वारा जो ढोयी जा रहो है ऐसी गाड़ी में क्षपक दर्शनादिको लेकर चढ़ जाता है । महावतरूपी भांड-मालको जिसने भर लिया है ऐसे साधुजन रूपी सार्थ-व्यापारियोंके साथ वह क्षपक सिद्धि-मुक्ति नगरके प्रति प्रस्थान कर देता है, किसलिये प्रस्थान करता है ? मुक्ति सुखरूपी महाभांडको-मालको खरीदने के लिये प्रस्थान करता है । अर्थ यह है कि क्षपक तथा साधूवर्ग महाव्रत समिति और गुप्तियोंका निर्दोष परिपालन करके मोक्षको प्राप्त कर लेते हैं ।।१३५१।। १३५२।। यह क्षपक एवं साधुजन रूपी सार्थ-व्यापारी वर्ग निर्यापक आचार्य रूपो वैश्यपति-व्यापारियोंका मुखिया द्वारा संस्क्रियमान-मार्गदर्शन प्राप्त करके अत्यन्त भयावह ऐसी संसाररूपी अटवोको बड़े उद्योगके साथ उल्लंघन कर जाता है अर्थात संसार वनसे निकल जाता है ।।१३५३।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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