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अनुशिष्टि महाधिकार तं भावनामहाभांडं घायते भवकानने । कषाय व्यालतः सूरिरिब्रियस्तेनतस्तथा ॥१३५४।। प्रमाववशतो यातो भ्रष्टो विषयकानने । तदीयं बतसर्वस्वं लप्यतेऽक्षमलिम्लुचैः ॥१३५५॥ तमसंयम बंष्ट्राभिः संक्लेशदशनैः शितः । कषायश्वापदाः क्षिप्रं दूरक्षा भक्षयन्ति च ॥१३५६॥
संसार रूपी वनमें भावनारूपी महाभांड-कीमती माल की कषायरूपी जंगली पशुओंसे तथा इन्द्रियरूपी चोरसे आचार्य रक्षा करते हैं ।।१३५४।।
भावार्थ--कोई जंगल में कीमती माल लेकर जा रहा हो तो वहां शेर आदि जंगली जानवर और चोर डाकू उस व्यक्तिके माल को लूट लेते हैं अतः मालको रक्षार्थ शस्त्रधारी पुरुष उसके साथ रहते हैं। इसीप्रकार क्षपक एवं साधुजन महाव्रतोंके भावनारूपी कोमती मालको लेकर संसारवनसे जा रहे हैं वहां कषाय ही चीते हैं और इन्द्रियरूपो चोर डाकू हैं उनसे यदि कोई रक्षा कर सकता है तो वह आचार्य ही कर सकता है । आचार्य साधुवर्गको स्वाध्याय ध्यान आदि कार्योंमें नियुक्त करते हैं इसीसे साधुवर्ग कषाय और इन्द्रिय विषयोंसे बचते हैं। साधुके व्रत एवं भावनाओंको कषाय और इन्द्रियां ही लूटते हैं । जब साधुजन स्वाध्याय ध्यानमें संलग्न हो जाते हैं तो कषायभाव और इन्द्रियोंके विषय इनसे दूर रहते हैं, इसतरह साधुजन संसार वनसे पार हो जाते हैं।
अवसन्न नामके भ्रष्ट मुनिजो साधु विषय रूपी वनमें प्रमादके वशसे मार्गभ्रष्ट हो जाता है उसके व्रतरूपी सर्वस्व धनको इन्द्रियरूपी चोर लूट लेते हैं ।।१३५५।।
तथा असंयम रूपी दाढ और संक्लेश रूपी पैने दांतोंसे कषाय रूपी दुष्ट श्वापद उस मार्गच्युत साधुको शीन खा जाते हैं इसप्रकार आचार्य रूपी सार्थसे पृथक हुए साधुकी दशा होतो है ।।१३५६।।
ओ साधु मुक्ति मार्गमें साथ चलनेवाले सार्थसे छूट जाता है-उसका साथ छोड़कर भ्रष्ट होता है वह अवसन्न क्रिया अर्थात् आवश्यक क्रियाओंमें शिथिलताको