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________________ मरण कण्डिका यः साधःसार्थतो भ्रष्टः सिद्धिमार्गानुयायिनः । सोऽवसनक्रिया: साघः सेवमानोऽस्त्यसंयतः ॥१३५७।। कषायाक्षगुरुत्वेन तपस्वी सुखभावनः । अवसनक्रियो भूत्वा सेवते फरणालसः ॥१३५८॥ [इति अवसन्नः] हृषीकतस्करीमः कषायश्वापदैरपि । विमोच्य नोयते मार्गे साधुः सार्थस्य पार्श्वतः ॥१३५६ ।। साधः सायं परित्यज्य नीयमानो महाभयम् । सहते दारुणं दुःखं प्राप्तो गौरवकाननम् ॥१३६०॥ शल्यछुःकंटकविद्धाः पतिता दुःखमासप्ते । एकाकिनोऽवीं याता विद्धा या विषकंटकः ॥१३६॥ करता हुआ असंयत बन जाता है । सुखिया जीवन को है इच्छा जिसे ऐसा वह तपस्त्री कषाय और इन्द्रियकी अधीनतासे तेरह प्रकारको क्रियाओंमें आलसी हुआ शिथिलाचारका सेवन करता है ।।१३५७।।१३५८।। पाइवस्थ नामके भ्रष्ट मुनिइन्द्रिय रूपी भयंकर चोर तथा कषायरूपी श्वापदों द्वारा कोई साधु सार्थसाधरूपी व्यापारोका साथ छुड़ाकर पार्श्वस्थ मुनिके मार्गमें ले लिया जाता है । अर्थात इन्द्रिय और कषायके अधीन हुआ साधु सुखिया जोवनमें आसक्त होकर अपने साधर्मी साधुजनोंका साथ छोड़ देता है और स्वच्छन्द होकर पार्श्वस्थ-भ्रष्ट मुनिके पास जाता है-भ्रष्ट मुनिका आचरण करने लगता है ।।१३५६।। जब वह साधु अपने साधर्मी साधुरूपी सार्थको छोड़ देता है तब महाभयानक गौरव-ऋद्धि गारव आदि तीन गारवरूपी जंगल में प्रविष्ट हो दारुण दुःखको सहन करता है ।। १३६०॥ जो साधु समूहसे गिर गये हैं अर्थात् जिन्होंने निदोष साधु समागमको छोड़ दिया है वह शल्य रूपो खोटे कांटोंसे विद्ध होते हैं इसतरह जंगल में पड़े हुए दुःख में रहते हैं। जैसे कोई पथिक अकेले जंगल में जाते हैं तो वहां विषले कांटोंसे विद्ध होते हैं ।।१३६१।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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