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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ३६७ साधुः सार्थपथं त्यक्त्वा स पार्वे याति संयतः । पार्श्वस्थानां शियां याति यश्चारित्रविजितः ॥१३६२॥ कषायाक्षगुरुत्वेन पश्यावृत्तं तुणं यथा । भूत्वानिमको पाति पार्षस्थानां सदाक्रियाः॥१३६३।। (पाश्वस्थः) अक्षचौरहताः केचित्कषायव्यालभीतितः । उन्मार्गेण पलायंते साधूसार्थस्य दूरतः ॥१३६४॥ ततोऽपथेन धावन्तः कुशीलानां क्रियावने । क्लेशस्रोतोभिरह्मन्ते यासाः संज्ञामहानदीः ॥१३६५।। संज्ञानदीषु ते मग्नाः क्वचिदप्यनस्थिताः । पश्चाज्जन्मोदधि यांति दुःखभीमझषाकुलम् ॥१३६६॥
कोई साधु सार्थ-साधुवर्गके पथको छोड़ कर पावस्थके पास जाता है वह चारित्र रहित हुआ पावस्थ-भ्रष्ट मुनियोंको क्रियाको करता है ॥१३६२।।।
जो भ्रष्ट मुनिकी संगति करता है वह कषाय और इन्द्रियकी तीव्रता रूप भारसे युक्त होने से अपना जो महाव्रत रूप चारित्र है उसको तृणके समान तुच्छ मानता हुआ धर्म रहित होकर सदा ही पार्वेस्थकी क्रियाओंको करता है-भ्रष्ट मूनिका आचरण करता है ।।१३६३।।
कुशील नामके भ्रष्ट मुनि__कोई-कोई साधुजन इन्द्रिय रूपी चोरोंके द्वारा पीटे जाते हैं तथा कोई कषाय रूपी श्वापदके भयसे साधु सार्थको दूरसे छोड़कर तथा सन्मार्ग-रत्नत्रयमार्गको छोड़कर उन्मार्गसे भाग जाते हैं ।।१३६४॥
कुशीलोंके क्रियावनमें खोटे मार्गसे दौड़ते हुए वे मुनि-आहार मैथुन आदि चार संज्ञारूप महानदीमें प्राप्त हुए क्लेश रूपी प्रवाह द्वारा बहाकर लिये जाते हैं । अर्थात् वे भ्रष्ट मुनि क्लेश रूप नदीमें बह जाते हैं ॥१३६५।।
जब वे भृष्ट मुनि संज्ञारूपी नदीमें डूब जाते हैं तब वहां कहीं पर भी स्थिर न रहकर आगे-आगे बहते जाते हैं और दुःख रूपी भयानक मछलियोंसे भरे हुए जन्मरूपी सागर में प्रविष्ट हो जाते हैं ।।१३६६।।