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________________ [ ३७९ अनुशिष्टि महाधिकार मधुराः सेवमाना हि विपाके दुःखदायिनः । चितनीयाः सदा भोगाः किपाकफलसंनिभाः ॥१२६८॥ भोगार्थमेव चारित्रं निदाने सति जायते । कर्म कर्मकरस्येव द्रविणार्थविचारणे ॥१२६६॥ भवत्यब्रह्मचर्यार्थ सनिदानं तपो यतः । अपसारो विधातार्थ भेषस्येवास्ति मेषत: ॥१३००। एकको उक्त पद मिले तो मानकषायके दोषसे उसको मुक्ति लाभ नहीं होता, अतः ___आचार्यत्व आदिका निदान करना व्यर्थ है ।।१२६७।। ___ इसप्रकार प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों निदान वर्जनीय है ऐसा बतलाकर भोग मिदानको निंदा करते हैं ये संसारके विषयभोग-सुदर सुदर भोजन, सुदर कामिनी, धन इत्यादि सब हो भोग सामग्री केवल सेवन करते समय मधुर लगती है किन्तु उदयकालमें अत्यन्त दुःखदायी होतो है, जैसे किंपाक फल खाते समय मधुर लगता है किन्तु विपाक में प्राणघातक होता है । वैसे ही भोग भोगते समय अच्छे लगते हैं किन्तु भोग करते समय जो पबंध हुआ था उस कर्मका उदय आनेपर महान् दुःख उठाना पड़ता है। इसतरह मुमुक्षु जनोंको सदा हो भोगके दोषका विचार करते रहना चाहिये ।।१२९८।। निदान करनेपर चारित्र भोगके लिये ही रह जाता है, जैसे कर्मकर-नौकरकी क्रियायें केवल धनके लिये हुआ करती है । अर्थात् मुनि चारित्र पालन करता है किन्तु निदानयुक्त है तो उसका चारित्र केवल भोग प्राप्ति करा सकता है, कर्मनिर्जरा नहीं ।।१२६६।। निदानयुक्त ब्रह्मचर्य आदि तप करना तो अब्रह्मचर्य के लिये कहा जायगा। जिसप्रकार कि एक बकरेको दूसरे बकरेसे पीछे हटना बकरेको मारने के लिये ही होता है । उसीप्रकार निदान युक्त ब्रह्मचर्य आदिको पालन करके विषयोंसे हटना ब्रह्मचर्यके घात के लिये माना जायगा। क्योंकि निदानसे भोग प्राप्ति होगी उससे अब्रह्म सेवन ही करेगा, यहां तक कि जो भोग सामग्री स्त्री धन आदि निदान द्वारा प्राप्त होती है वह प्रायः छूट ती नहीं, उसमें अधिक मोहभाव होने से उसे वह व्यक्ति छोड़ नहीं पाता, जैसे कि नारायण प्रतिनारायण भोगसामग्रो छोड़ नहीं सकते ।।१३००।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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