________________
३७८ ]
मरणकण्डिका
सुभगत्वमसौभाग्यं स्वरूपत्वं विरूपता । आज्ञानाज्ञादरी निया चित्ते कृत्या न धीमता ।।१२६४॥ एतेषां चितनान्मानो घर्धते सर्वदाऽग्निवत । ताएपद्धः सद्यो होयते तत्वचितने ।।१२६५।। उच्चत्वादिनिदानेऽपि संसारं लभते यदि । तवा वनिदानेगी भव भागीति का कथा ॥१२९६।। निदानेऽपि कुलादीनि जायंते नात्र जन्मनि । संयम विवधानस्य मानिनो यातना परा ॥१२६७।।
__ -- - -. बुद्धिमान पुरुष द्वारा सौभाग्य और दुर्भाग्य, सुदरता और विरूपता एवं आज्ञा और अनाज्ञा होने पर भी न आदरभाव किया जाना चाहिये और न निंदाभाव किया जाना चाहिये ।।१२६४।।
इन उच्चकुल सौभाग्य आदिके विचारसे अभिमान अग्निके समान सदा ही बढ़ता है जो कि अभिमान संसारकी वृद्धि करनेवाला है। किन्तु तत्त्व चिंतन करनेपर अर्थात् उच्च नीच आदिके परिवर्तन शोलता आदि विषयोंपर वास्तविक बोधके साथ तत्त्वचितन किया जानेपर अभिमान तत्काल नष्ट हो जाता है और उससे कषाय शांत होने के कारण संसारका किनारा निकट आजाता है ।।१२६५।।
उच्चत्व आदि मुझे प्राप्त होवे ऐसा निदान करनेपर भी यदि संसारकी वृद्धि होती है संसार भ्रमण हो प्राप्त होता है तो फिर जो व्यक्ति किसीको मारने का निदान करता है उसका क्या कहना ? वह संसारका भागी बनेगा हो ।।१२६६।।
कोई कहे कि गणधर पदादिकी प्रार्थना करना अशोभन क्यों है ? इससे तो रत्नत्रयको प्रर्थना करना जैसा ही होता है ?
अब इसका उत्तर देते हैं
आचार्य गणधर आदिका निदान करनेपर भी चे पद इस निदान करनेवाले भवमें तो प्राप्त होते नहीं । कदाचित् उसकी प्राप्ति हो भी जाय तो मानकषायके कारण यातना होती है । आशय यह है कि आचार्यत्व आदिका निदान करने पर भी उसी भवमें वह पद मिलता नहीं कदाचित् बहुत उच्चकोटिका संयम पालन करने पर किसी