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________________ [ ३७७ अनुशिष्टि महाधिकार ततो नोच्चत्वनीचत्वे कारणं प्रीतिदुःखयोः । परमुम्चत्वनीचत्वसंकल्पः कारणं तयोः ।।१२६२।। नोचगोत्रं नरं मानो विधत्ते बहजन्मस् । प्राप्ता लक्ष्मीमतिर्नीचा योनिर्मानेन भूरिशः ॥१२६३।। - . --.- .-. . . अतः यह निश्चित होता है कि उच्चत्व और नीचत्व सुख और दुःखका कारण नहीं है किन्तु उच्चत्व और नीचत्वका सकरूप हो उन दोनोंका कारण है ।। १२६२।। यह मानकषाय जोवको बहुतसी योनियोंमें नीचगोत्री बनाता है । देखो ! लक्ष्मीमती मानके द्वारा बहुत बार नोच योनिको प्राप्त हुई थी ।।१२६३॥ लक्ष्मीमतीकी कथा-- लक्ष्मी नामके ग्राममें सोमशर्मा ब्राह्मणके लक्ष्मीमती नामको अत्यंत रूपवती पत्नी थी। उसको अपने रूपका बड़ा भारी गर्व था । वह सदा ही अपने रूपको संवारने में लगी रहती। एक दिन पक्षोपवासी समाधिगुप्त नामके मुनिराज आहार के लिये आये । आंगनमें आते हुए देखकर लक्ष्मीमतीने उनकी बहुत निंदा की, गालियां दी और घरका दरवाजा बंद कर दिया। उसे उस समय अपना शृंगार करना या उसमें मुनिको आहार देने से व्यवधान पड़ता इस कारणसे तथा मुनिके स्नान रहित शरीरसे ग्लानि होनेसे लक्ष्मीमतीने अपने रूपके गर्वमें आकर मुनि निदाका महान पापकर डाला। मुनि शांतभावसे अन्यत्र चले गये । किन्तु मुनि निंदाके पापसे लक्ष्मीमतीको सातवें दिन गलित कुष्ठ रोग होगया । उसे लोगोंने दुर्गंधताके कारण गांव के बाहर निकाल दिया । वहां वेदना सहन नहीं होनेसे आगमें जलकर मरी और गधी हुई । पुनः क्रमशः सूमरी, दो बार कुत्ती हई । फिर धीवरकी दुगंधा पुत्री हुई । इस पर्याय में उन्हीं समाधिगुप्त मुनिराज द्वारा धर्म श्रवणकर शांतभावको प्राप्त हुई। इसप्रकार मानकषायके दोषसे लक्ष्मीमतोको अनेक भवोंमें महान कष्ट सहना पड़ा। नीचगोत्री तिर्यचनी पर्यायको बार-बार प्राप्त करना पड़ा। लक्ष्मीमतीको कथा समाप्त । इसप्रकार अतीत भवोंमें अनंतबार नीच तथा उच्च कुल प्राप्त कर चुके हैं, अनंतभवोंमें उस उस कुल द्वारा पूजा और अनादर आदि भी मिल चुके हैं । जीवकी तो कहीं पर हानि या वृद्धि नहीं हुई है वह तो असंख्यात प्रदेशी ही रहा है ऐसा जानकर
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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