________________
मरणकपिडका
उच्चत्वे बहुशः कोऽत्र लब्ध्वा त्यक्तऽस्ति विस्मयः । नीचत्वे वास्ति किं दुःखं लन्ध्या त्यक्त सहस्रशः ।।१२८८॥ उच्चत्वे जायते प्रोतिः संकल्पवशतोऽगिनः । नीचस्वेऽपि महावुःखं कषायवशतिनः ॥१२८६।। उपचत्वमिव नोचत्वं चेतसा यो निरीक्षते । उच्चत्य इव नीचत्वे किमसो न सुखायते ।।१२६०॥ यो नोचत्वमिवोच्चत्वं विकल्पपति मानसे । तस्योपचस्वे न कि दुःखं नीचत्वमिव जायते ॥१२६१॥
यदि हमने बहुत-बहुत बार उच्चकुलोंको पाकर छोड़ा है तो उसमें क्या आश्चर्य या बड़प्पन हुआ ? और हजारों बार अनेकों बार नीच कूलोंको पाकर यदि उन्हें छोड़ ही दिया है तो उसमें क्या दुःख है ? कुछ भी नहीं ।।१२८८।।
__ केवल संसारी प्राणियों को संकल्पवश या अभिमान वश ही उच्चगोत्र मिलने पर प्रीति होती है । कषायके कारण नीच गोत्र मिलनेपर महादुःख होता है। भाव यह हुआ कि उच्च कुल मिला तो उससे सुख नहीं हुआ किन्तु मैं कुलोन हूं इसतरहके मनके विचारसे ही संकल्पवश खूश होता है और नीचकुल कोई दुःख नहीं देता किन्तु कषायके कारण दुःख होता है ।।१२८६।।
जो उच्चत्वके समान नोचत्वको मनसे देखता है उसको उच्चत्वके समान नीचत्वमें भी क्या सुख नहीं होता ? अर्थात् नीचत्व उच्चत्वको अच्छा या बुरा मानना उस व्यक्ति के संकल्प के आधीन है, बहुत से व्यक्ति नोच कुल में आनंद मानते रहते हैं और बहुतसे उसके प्राप्तिमें दुःखानुभव करते हैं तथा अन्य कोई उच्चकल मिलने में सूखानुभव करते हैं तो कोई दुःखानुभव करते हैं, यह उस व्यक्तिके संकल्पके कषाय भावके अनुसार होता है । उच्च कुल को प्राप्तकर जिनदीक्षा लेकर उसकुलकी प्राप्तिका लाभ उठावे तो भला है अन्यथा क्या लाभ ? ||१२९०।।
जो मन में नीचत्वके समान उच्चत्वको मानता है उसको उच्चत्य मिलने पर भी नीचत्वके समान क्या दुःख नहीं होता ? ||१२६१।।