________________
। ३७५
अनुगिष्टि महाधिकार उच्वं भवे कुलं नीचो नीचमुच्चः प्रपद्यते । कुलानि संति जीवानां पांथानामिव विश्रमः ।।१२८५॥ हानिवृद्धि प्रजायेते नोचोच्चासु न योनिषु । सर्वत्रोस्पद्यमानस्य जीवस्य सममानता ॥१२८६॥ लाभं लाभमनंताश्च नीचामुच्चां प्रपद्यते । तथाप्युच्चा अपि प्राप्ता अनंता योनयो भवे ॥१२८७।।
भाव यह है कि मान कषायकी पुष्टि या अभिमानके वश होकर लोग अप्रशस्त निदान करते हैं अत: यहांपर कहा है कि हे साधो ! तुम उस मानका नाश करो और उसके लिये संसारके स्वरूपका शारीने स्वरूप विचार करो कि यह संसार अपार दुःखोंका सागर है नरकादि गतिमें महान कष्ट मैंने पाये हैं, शरीर तो साक्षात् अत्यंत अशुचि रूप है अतः किसी देवादि पर्यायकी या सुदर शरीरको इच्छा करना अत्यंत कष्टप्रद है । इसप्रकार विचार करनेसे भोगोंका निदान नहीं होता ।।
___ कुलके मानका निषेधजो व्यक्ति आज उच्चकूल में उत्पन्न हुआ है वह नीच कुल में उत्पन्न हो जाता है और जो आज नीच कुलीन है पुनः आगे उच्च कुलको प्राप्त कर लेता है जीवोंके कुल तो पथिक जनोंके मार्ग में होनेवाले विश्राम स्थल सदृश हुआ करते हैं अर्थात जैसे पथिक मार्ग में चलते हुए वृक्षके नीचे विश्राम करता है फिर उस वृक्षको छोड़कर दूसरे और उसको भी छोड़कर तीसरे वृक्षके तले विश्राम करता हुआ आगे-आगे गमन कर जाता है, वैसे यह उच्चकुल में जन्म लेकर वहांकी आयु पूर्णकर नोचकूल में जन्म लेता है । अत: मैं उच्चकुलीन हूँ इस प्रकार कुलाभिमान करना व्यर्थ है ॥१२८५।
नीच और उच्च कुलों में जन्म लेनेसे जीवके हानि और वृद्धि नहीं हुआ करती, वह तो सर्वकुलों में समान प्रमाण वाला असंख्यात प्रदेशवाला ही रहता है ।।१२८६।। यह संसारी प्राणी अनंत-अनंत नीच कुलोंको और अनंत अनंत उच्चकुलोंको प्राप्त करता है तथा पुन; अनंत उच्चकुलोंको पाकर नीच कुलोंको भो पाता रहता है, संसारमें इसप्रकार उच्चगोत्र कम और नीच गोत्र कर्म के उदयानुसार कुलों का परिवर्तन होता ही रहता है, इसका क्या अभिमान ।।१२८७।।