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________________ ३७४ ] मरकण्डिका नरत्वाविनिवानं च न कांक्षति मुमुक्षवः । नरत्वादिमयं तस्मात्संसारस्तन्मयो यतः ॥ १२८१|| समाधिमरणं बोधिषु : खकर्मक्षयस्ततः प्रार्थनीयो महाप्राज्ञैः परं नातः कदाचन ।। १२६२॥ I नरत्वसंयमप्राप्ती परत्र भवतः स्वयम् । निदानमंतरेणापि हाधाराधनांगिनः ।। १२८३ ॥ सहणनीरनिर्घेटमानदोषदिचितनम् । कर्तव्यं मानभंगा संसारान्तंयियासता ।। १२८४ ॥ मुमुक्षू जन तो पुरुषत्व आदिकी प्राप्तिकी इच्छा रूप निदान भी नहीं करते क्योंकि पुरुषत्व आदि भी भव है और भत्र संसार रूप है- बार-बार पर्यायें ग्रहण करना ही तो संसार है ।। १२८१ ॥ इसलिये महाप्राज्ञ पुरुषों द्वारा समाधिमरण, बोधि- रत्नत्रय, दुःखक्षय और कर्मक्षयकी प्रार्थना करनी चाहिये इनसे अन्य वस्तुकी कभी भी प्रार्थना नहीं करना चाहिये ।। १२६२ ।। भावार्थ - बुद्धिमान सम्यग्दृष्टि यदि कुछ प्रार्थना या वच्छा करते हैं तो यह करते हैं कि मेरे शारीरिक, मानसिक, आगंतुक दुःखोंका नाश हो, कर्मोंका नाश हो, रत्नत्रय स्वरूप बोधिका लाभ होवे तथा समाधिमरणकी प्राप्ति हो । साधुओंके द्वारा प्रतिदिन किये जानेवाले भक्ति पाठ में तथा श्रावकोंके द्वारा किये जानेवाले पूजापाठ में आता है किम दुक्खक्खदो, कम्मक्खवो, बोद्धिलाहो, सुगइ गमणं समाहिमरणं जिणगुरणसंपत्ति होउ मज्झं | सम्यग्दर्शन आदि चार आराधनाओंको करनेवाले व्यक्तिके निदान के बिना भी परभव में अपने आप मनुष्यभव तथा संयम की प्राप्ति होती है ।। १२८३ ॥ संसारसे वैराग्य और शरीरसे वैराग्य कैसे हो इसका चितवन तथा मान पायसे होनेवाले दोषोंका चितवन मानको नष्ट करनेके लिये सदा करना चाहिये जो कि संसारके अंतको प्राप्त करना चाहते हैं अर्थात् मुक्तिको चाहते हैं ।।१२८४ ॥
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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