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________________ [ २२७ अनुशिष्टि महाधिकार मा स्म कार्षीः प्रमादं त्वं सम्यक्त्वे भद्रवर्धके । तपोज्ञानचरित्राणां, सस्थानामिष पुष्करं ।।७६६।। सारं द्वार पुरस्व पत्रस्यध विलोचनम् । मूलं महोरहस्येष, संज्ञानावेः सुदर्शनम् ॥७६७॥ बलानि नायकेनेव, शरीराणीव जंतुना । जानादीनि प्रवर्तते, सम्यक्त्वेन विना कुतः ॥७६८।। भ्रष्टोऽस्ति वर्शनभ्रष्टो, तभ्रष्टोऽपि नो पुनः । पतनं ह्यस्ति संसारे, न वर्शनममुचतः ॥७६६॥ यदि कोई वैरी है तो मिथ्यात्व ही है । अनादिकालसे आजतक जो संसार परिभ्रमण हुआ है वह एक मिथ्यात्व के कारण हो हुआ है । ऐसे कष्टप्रद मिथ्यात्वका त्याग करने की श्रेष्ठ प्रेरणा आचार्य देवने क्षपकको दी है। सम्यक्त्व भावना हे क्षपक ! कल्याण की बुद्धि करनेवाले सम्यक्त्व में तुम जरा भी प्रमाद मत करना । यह सम्यक्त्व तो तपस्या, ज्ञान और चारित्रका आश्रय है या इन तोनोंकी वृद्धि करनेवाला है, जैसे धान्योंका आश्रय मेध है । अर्थात् मेघ जैसे धान्योंको वृद्धि करते हैं वैसे हो सम्यक्त्व, ज्ञान, चारित्र तथा तपकी वृद्धि करता है । अथवा यों कहिये सम्यक्त्व के बिना इन ज्ञानादि को उत्पत्ति हो नहीं होती है। ऐसे सम्यक्त्वमें कभी भी प्रमाद नहीं करना-सम्यक्त्व नष्ट नहीं होने देना ।।७६६।। जिसप्रकार नगरका सार गोपुर द्वार है, मुखका सार नेत्र है, वृक्षका सार जड़-मूल है उसप्रकार ज्ञान आदिका सार सम्यग्दर्शन है ।।७६७।। जिसतरह सेनानोके बिना सेना अपने कार्यमें प्रवृत्त नहीं हो पाती, जीवके बिना शरीर प्रवर्तन नहीं कर पाता उसतरह सम्यक्त्वके बिना ज्ञानादि स्वकार्यमें प्रवृत्त फहांसे हो ? नहीं हो सकते ।।७६८।। ___सम्यग्दर्शनसे जो भ्रष्ट है वह वास्तव में भ्रष्ट है किन्तु व्रतभ्रष्ट नहीं है क्योंकि दर्शनसे भ्रष्ट होनेपर संसारमें चिरकाल तक भ्रमण होता है किन्तु दर्शनको नहीं छोड़ा है तो चिरकाल तक भ्रमण नहीं होता है ।।७६९।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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