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मरगा कण्डिका
कटुकेला बुनि क्षीरं, यथा नश्यत्यशोधिते | शोधिते जायते हृद्यं मधुरं पुष्टिकारणम् ॥७६३ ॥ तपोज्ञानचरित्राणि, समिध्यात्वे तथांगिनि ।
नयंति वान्तमिथ्यात्वे जायन्ते फलवन्ति च ॥७६४|| तविलंबित
दवणकर व कुत्रवियोत्तमाः । सकलधर्मविषाय सुदर्शनं, सुविभजन्ति सुमित्रमिवाशनम् ।।७६५ ।। इति मिथ्यात्वापोहनम् ।
दरबार में जैनधर्म को महानता और चारणऋद्धिधारी मुनिराजों के चमत्कार सुनाये, और उस घटना को सुनानेका अनुरोध मन्त्रीसे भी किया । मन्त्री बोला - "महाराज ! असम्भव है, न मैंने अपनी आँखोंसे देखा है और न इस प्रकार को बात सम्भव है ।" मन्त्री की असत्य बात सुनकर राजा को बहुत विस्मय हुआ किन्तु उसी क्षण मन्त्री के दोनों नेत्र फूट गये और वह दुर्गंति का पात्र बना । "जैसी करनी वैसी भरनी" के अनुसार ही उसने फल प्राप्त किया ।
संघश्री की कथा समाप्त ।
जिसका अंदरका गूदा साफ नहीं किया है ऐसे कड़वी तू बड़ीमें रखा हुआ दूध जैसे नष्ट हो जाता है और उसी तू बड़ी को अंदरसे साफ करनेपर उसमें दूध रखने पर वह मधुर मनोहर दूध पुष्टिकारक हो जाता है ।।७६३।।
ठीक इसीप्रकार मिध्यात्व युक्त जीव में तप, ज्ञान और चारित्र नष्ट हो जाते हैं और मिथ्यात्व को जिसने वमन कर डाला है ऐसे जोब में तपज्ञानादि फलदायक होते हैं ।।७६४||
जिसप्रकार विविध दोषोंको करने वाले खोटे मित्र को शीघ्र ही छोड़ दिया जाता है उसीप्रकार भव्य जोव विविध दोष-कुगतिगमनादिको करने वाले इस मिथ्यात्व को शीघ्र हो छोड़कर, समस्त धर्मको करनेवाले सुमित्र के समान इस सम्यक्त्व का सेवन करते हैं ||७६५||
विशेषार्थ - यहां पर बारह श्लोकों द्वारा मिथ्यात्व परिणाम का कितना कष्टदायक फल होता है यह बताया है जो अत्यंत हृदयग्राही है । सचमुच में इस जीवका