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________________ ६०४ ] मरणकशिका वंदमानोऽश्नुते पुण्यं योगिनां प्रतिमा यदि । भक्तितो न तपोराशिस्तदानों पकः कथम् ॥२०५१॥ सेव्यते क्षपको येन शक्तितो भक्तितः सदा । तस्याप्याराधना देवो प्रत्यक्षा जायते मृतौ ॥२०॥२॥ भक्तत्यागः सबोचारो विस्तरेणेति वर्णितः । अधुना तमयोचारं वर्णयामि समासतः ॥२०६३।। ॥ इति भक्तत्यागः ॥ तपस्या करनेवाले क्षपक मुनिराज सत् तीर्थरूप कैसे नहीं हैं ? वे अवश्य ही महातीर्थ स्वरूप हैं, पर्वतादिक तो तपस्वी मुनिके स्पर्शसे तीर्थ हुए हैं किन्तु तपस्वी क्षपक मुनि तो स्वयं महान आत्मिकगुण राशिका भंडार हैं वे ही मुख्यतीर्थ हैं ।।२०८०॥ देखिये ! मुनिराजोंकी प्रतिमाको वंदना करनेवाला व्यक्ति यदि पुण्यको प्राप्त करता है तो तपकी राशि स्वरूप योगी क्षपक भक्तिसे कैसे बंदनीय नहीं है ? अवश्य है। उनकी वंदना करनेवाला महान पुण्योपार्जन करता ही है ।।२०८१॥ जो भी भव्य जीव शक्तिसे भक्तिसे सदा क्षपककी सेधा वैयावृत्य करता है, वंदना करता है, नमस्कार पूजा करता है उसके भी क्षपकके समान आराधना देवी मरणकालमें प्रत्यक्ष प्रगट होतो है । अर्थात् क्षपकको वंदना सेवा करनेवाले पुरुषका समाधिपूर्वक मरण होता है ।।२०६२।। इस प्रकार यहां तक सवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका विस्तार पूर्वक वर्णन किया । अब आगे अवीचार भक्त प्रत्याख्यान मरणका संक्षेपसे वर्णन करते हैं |२०८३।। भावार्थ-प्रारंभ में भक्त प्रत्याख्यान मरणके दो भेद किये थे सवीचार भक्त प्रत्याख्यान और अवीचार भक्त प्रत्याख्यान । जिनकी आयु अभी शोध समाप्त नहीं होनेवाली है और कुछ कारण विशेष समाधिके लिये उपस्थित हो रहे हैं तब ज्ञानी मुनिजन क्रमशः आहार और कषायको कुश करते हुए अंतमें सर्वथा त्यागकर आत्माका ध्यान करते हुए प्राण छोड़ते हैं ऐसी विधि जिसमें होती है वह सवीचार भक्त त्याग है,
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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