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________________ ४१८ ] मरणकण्डिका सुरूपोऽपि नरो रुष्टो जायते मर्कटोपमः । कोपोपाजिलपापश्च विरूपो जन्मकोटिषु ॥१४४०॥ द्वेष्यो जनः प्रकोपेन जायते वल्लभोऽपि सन् । अकृत्यकारिगरतस्य हश्चलि विसं यशः ॥७॥ कुपितः कुरुते मूढो बांधवानपि विद्विषः । परं मारयते तैर्वा मार्यते म्रियते स्वयम् ॥१४४२॥ रुषितः पूजनीयोऽपि मंडलो चापमन्यते । समस्तं लोकविख्यातं माहात्म्यं च पलायते ।।१४४३।। कृत्वा हिंसानृतस्तेय कर्माणि कुपितो यथा। सर्व हिंसानतस्तेयदोषमाप्नोति निश्चितम् ॥१४४४॥ __ सुंदर मनुष्य भी क्रोधित होनेपर बंदर जैसा मुखवाला लगता है और उस क्रोधके द्वारा उत्पन्न हुए पापके कारण करोड़ों जन्मोंमें कुरूप बदसूरत बन जाता है ।।१४४०।। कोप करने से अतिशय प्रिय मनुष्य भी अप्रिय बन जाता है, वह क्रोधो अकृत्य को करने लगता है इससे उसका फैला हुआ यश नष्ट हो जाता है ||१४४१। कुपित हुआ मढ़ पूरुष अपने बंधुजनोंको भी शत्रु कर देता है, क्रोधी दूसरे को भरवा डालसा है या शत्रु भावको प्राप्त हुए उन बांधवों द्वारा मारा जाता है अथवा क्रोधवश खुद ही मर जाता है ।।१४४२।। पूजनीय पुरुष भी क्रुद्ध हुआ कुत्ते के समान तिरस्कृत होने लगता है और उसका सर्व लोकमें प्रसिद्ध माहात्म्य नष्ट हो जाता है ॥१४४३।।। ऋद्ध पुरुष हिंसा, झूठ, चोरी आदि पाप क्रियाको जिसतरह करता है, उस पाप क्रियासे पाप बंध होकर आगे उसको वे हिंसा, झूठ और चोरोके दोष निश्चित ही प्राप्त होते हैं 11१४४४॥ विशेषार्थ-क्रोध में आकर मानब यहां पर किसोकी हिंसा करता है, झुठ बोलता है और परका धन चुराता है इससे घोर पाप बंध होकर जब वह पाप उदयमें आता है तब अन्य लोग उसकी हिंसा करते हैं, उसे मार डालते हैं, उसके साथ असत्य
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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