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________________ अनुशिष्टि महाधिकार गुणागुणो न जानाति बचो अल्पति निष्ठरं । नरो रौद्रमना रुष्टो जायते नारकोपमः ।।१४३७॥ धान्य कृषीवलस्येव पावकः क्लेशतोऽजितम् । धामन्यं प्लोषते रोषः क्षणेन प्रतिनोऽखिलं ।।१४३८।। यथवोग्रविषः सर्पः कुडो वर्भतृणाहतः । निर्विषो जायते शीघ्र निःसारोऽस्ति तथायतिः ॥१४३६॥ भावार्थ-यह क्रोध शत्रुका उपकार करता है, क्योंकि जब मनुष्य क्रुद्ध होता है तब उसके शत्रुको आनंद आता है यह इसीतरह क्रोध करता रहे ऐसो शत्रुकी भावना रहती है, क्रोधी पुरुषके स्वजन दुःखी रहते हैं क्योंकि वह उन्हें गुस्से में आकर कष्ट पहुंचाता है । क्रोधसे अपना स्थान या पद नष्ट होता है-क्रोधीको अपने उच्च पदसे अयुत होना पड़ता है, क्रोधसे शरीर आदिका बल और कुल भी नष्ट होता ही है। आरोग्य शास्त्रका कहना है कि क्रोधसे अनेक रोग होकर शरीर बलहीन बन जाता है और क्रोधी कुगतिमें जाकर अपना भी नाश कर डालता है। इसतरह क्रोधके दोष जानना चाहिये । आगे और भी कहते हैं--- रुष्ट पुरुष अत्यंत क्रूर परिणाम वाला हो जाता है, वह गुण अवगुणको नहीं जानता, निष्ठुर वचन बोलता है, इसतरह नारको जीवके समान बन जाता है ॥१४३७।। जैसे बड़े मुश्किलसे उत्पन्न किये गये किसानके धान्यको अग्नि क्षणमात्रमें जला देती है, वैसे रोष व्रती पुरुषके अखिल श्रामण्य धर्मको क्षणमात्रमें जला देता है-- नष्ट कर देता है ।।१४३८।। जैसे उग्र विषवाला सर्प तीक्ष्ण डाभ जातिके तणसे पीड़ित होवे तो क्रोधसे उस डाभ तृणको खा डालता है किन्तु उससे उसके अंदरका विष बाहर उबल पड़ता है और इसतरह शीघ्र ही वह निःसार हो जाता है, उसीप्रकार यति क्रोधके कारण निःसार रत्नत्रय रहित हो जाता है ।। १४३६।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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