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मरण कण्डिका
freलोकलितालोको रक्तस्तब्धीकृतेक्षणः । तदष्टाधरो कुष्टो जायते राक्षसोपमः ।। १४३२।। श्राददानो यथा लोहं परवाहाय कोपतः । स्वयं प्रवह्यते पूर्वं परवाहे विकल्पनम् || १४३३ ।। विधानस्तथा कोपं परघाताय मूढधीः । स्वयं निहन्यते पूर्वमन्यघातो विकल्प्यते || १४३४ ।। आधारं पुरुषं हत्वा पापः कोपः पलायते । प्रदा जनकं कष्टं वह्निः किं नोपशाम्यति ।। १४३५ ।।
शत्रूपकाराद्रोषो यः स्थबंधूनां च शोककृत् । स्थानं कुलं बलं क्रोधं हत्वा नाशयते नरम् ।।१४३६॥
भौहें चढ़ाकर ललाटमें जिसके त्रिबलि पड़ी है ऐसा वह क्रोधी लाल और स्तब्ध कर लिया है नेत्रोंको जिसने ऐसा हुआ दालोंसे ओठोंको चबाने लगता है और इसतरह वह साक्षात् राक्षसके समान दुष्ट बन जाता है ।। १४३२ ||
जिसप्रकार कोई पुरुष गुस्से से परको जलाने के लिये गरम लोहेको ग्रहण करता हुआ पूर्व में स्वयं ही जल जाता है, अन्य व्यक्ति जले चाहे न जले इसमें दोनों विकल्प संभव हैं ।। १४३३ ।। उसीप्रकार कोई मूढ़ बुद्धि पुरुष परका घात करने के लिये कोको करता हुआ प्रथम स्वयं ही घातको प्राप्त होता है अन्यका घात तो होने अथवा न होवे ।। १४३४ ।।
यह पापरूप कोप अपने आधार स्वरूप पुरुषको नष्ट करके फिर स्वयं भाग जाता है । ठीक है ! देखो ! अग्नि अपनेको उत्पन्न करनेवाले लकड़ोको जलाकर क्या शांत नहीं होती ? होती है । अर्थात् अग्नि लकड़ी से उत्पन्न होकर लकड़ीको जलाती है और फिर आप शांत होती है-बुझ जाती है, वैसे जीवमें क्रोध उत्पन्न होकर जीवको नष्ट करता है - पापबंध कराता है और फिर खुद समाप्त होता है ।। १४३५ ।।
यह जो रोष है वह शत्रुका उपकार और स्वजनोंको शोक करानेवाला है, यह स्थान, कुल, बलको नष्ट करके अन्तमें मनुष्यका भी नाश करा देता है ।। १४३६ ||