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अनुशिष्टि महाधिकार
[ ४१५ छंद-रथोद्धताअग्निनेव हृषयं प्रदाते मुह्यते नु विषयविक्तितः । तत्कथं विषयवैरिणो जनाः पोषयन्ति भुजगानिबाधमान् ॥१४२६।।
इतिइंद्रिय विशेष दोषाः । अरत्यचिचः करालेन श्यामलीकृतविग्रहं । प्रस्विद्यति तुषारेऽपि तापितः कोपलिना ॥१४३०॥ प्रभाष्या भाषते भाषामकृतां कुरुते क्रियाम् । कोपन्याकुलितो जोवो प्रहात इव कम्पते ॥१४३१॥
नो रूप, गम, गोरन्द गनुष्यको बड़े भारी कुगतिके मार्ग में लगा देते हैं। अर्थात् इन रूपादि विषयों में फंसा हुआ प्राणी नरक आदि कुगतिमें जाकर महादुःख भोगता है ।।१४२८।।
शक्तिहीन पुरुषका हृदय विषयोंके द्वारा मोहित होता और अतिशय रूपसे जलता है मानो अग्निके द्वारा ही जल रहा हो । ऐसे विषयरूपी बैरियोंको जो कि सर्पके समान अधम-नीच हैं उनको लोग कसे पुष्ट कर सकते हैं ? नहीं कर सकते ||१४२६।।
इन्द्रिय दोषोंका वर्णन पूर्ण हुआ। अब कोपके दोष बतलाते हैं
अरति रूपी चिनगारियोंसे जो विकराल है ऐसे कोप रूप अग्निके द्वारा जिसका शरीर नीला काला कर दिया गया है एव तपाया गया है ऐसा पुरुष हिमकाल में भी पसीनेसे भोग जाता है अर्थात् जब व्यक्तिको क्रोध आता है उसकी आंखें, मुख आदि लाल काले हो जाते हैं सारा शरीर गुस्से के मारे तप जाता है और उसे पसीना आने लगता है ॥१४३०।।
कोपसे व्याकुलित हुआ जीव जो भाषा नहीं बोलनी चाहिये उसको बोलने लगता है, जो कार्य नहीं करना चाहिये उसे करने लगता है और ग्रहसे पोडित हाके समान कांपने लगता है ।।१४३१।।