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________________ सुस्थितादि अधिकार महूदुर्लभसंतस्था साधुवापि संयमम् । लभते नाशसानिध्ये वेशनां धृतिवद्ध नीम् ॥४४६ || [ १३७ है अर्थात् जिस जाति में स्त्रियोंके एकबार ही विवाह होता है, पतिके मरनेपर या जीवित रहने पर किसी भी स्थिति में दूसरा नहीं होता है, जो व्यभिचारी स्त्री की संतान परंपरा नहीं है, एवं गुण विशिष्ट सज्जातित्व होता है ] और कुलका होना, नीरोगता, दीर्घायु, हेयोपादेय बुद्धि, जैन धर्मका श्रवण, ग्रहण और श्रद्धाका होना महान् दुर्लभ है, इन सबके होने पर भी सकल संयमको प्राप्त होना तो अत्यंत दुष्कर है ।।४४८ || विशेषार्थ-संसार परिभ्रमण पांच प्रकारका है द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव । इन पंच परावर्तनोंका वर्णन बहुत विस्तृत है । यहां अति संक्षिप्त नाम मात्र बताते हैं- द्रव्य परिवर्तन-नारकादि चारों गतियोंके शारीरोंका बार-बार ग्रहण और विसर्जन एक विशिष्ट तरीके से होते रहा । क्षेत्र परिवर्तदोषा काणके संपूर्ण प्रदेशों में विशिष्ट क्रमसे जन्म मरण होना । काल परिवर्तन - उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के प्रत्येक समयों में क्रमशः जन्म-मरणकी पुनः पुनः आवृत्ति होना । भव परिवर्तन- प्रत्येक गति संबंधी जघन्यसे लेकर उत्कृष्ट तक सब तरह की आयुको क्रमसे प्राप्त करते रहना । भाव परिवर्तन कषाय अध्यवसान, योग स्थान आदि विशिष्ट तरीकेसे परावर्तन-परिवर्तन होते रहना । इसप्रकार परिवर्तनों में क्रमसे भ्रमण करते हुए इस जीवको मनुष्य भव मिलना दुर्लभ है, कैसे सो बताते हैं--तीन सौ तैतालीस घन राजू प्रमाण इस विशाल विश्व में केवल ढाई द्वीपमें मनुष्य रहते हैं अतः सर्वत्र भ्रमण करते हुए यह स्थान दुर्लभता से बहुत काल - अनंतकाल व्यतीत होनेपर प्राप्त होता । इसकी दुर्लभता वैसी है जैसे साधुके मुख से कठोर वचन निकलना दुर्लभ, या सूर्यमें अंत्रकार, क्रोधी में दया, लोभी में सत्यवचन, मानी में परगुणकथन, स्त्रियोंमें सरलता, दुष्ट में उपकार मानना, जैनमतों में वास्तविक तत्त्वबोध जैसे ये सब दुर्लभ हैं वैसे ही मनुष्यभव मिलना दुर्लभ है। मनुष्य पर्याय मिलनेपर भी आर्यक्षेत्र, लोकपूजित जाति एवं कुल, प्रशस्त रूप, बालकालमें नहीं मरना, हेयोपादेय बुद्धि, नीरोगोपना, जैनधर्मके उपदेशका सुनना उसे ग्रहण करना और उसपर श्रद्धा होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है अर्थात् इन सबमें से एक मिलता है तो दूसरा नहीं मिलता, दूसरा मिलता है तो तीसरा नहीं । सबका सब मिलना अति दुष्कर है, इनके मिलनेपर भी संयम प्राप्त होना दुर्लभ है । इसतरह बहुत कठिनाईसे क्षपक मुनिराजने संयमको प्राप्त किया है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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