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मराकण्डिका
प्रपाल्यापि चिरं वृत्तमश्रुताधारसन्निधौ । अलब्धवेशनो मृत्युकाले प्रशते ततः ॥४५०॥ दोषेभ्यो वार्यते दुःखं, संन्यस्तः क्रियते सुखम् ।। छिद्यते सुखनो वंशः, कृष्यते दुःखतस्ततः ॥४५१॥ अयमन्नमयो जीप, स्त्याज्यमानस्त्वसौ कदा । प्रात्तंरौद्राकुलीभूत, चतुरंगे न वर्तते ॥४५२॥ शिक्षान्मश्रतिपानाम्यां, साधाप्यायितः पुनः । धातृणाभिभूतोऽपि, शुद्धथ्याने प्रवर्तते ॥४५३।।
ऐसे बहु दुर्लभ संतति-परंपरासे प्राप्त संयमको क्षपक साधु प्राप्त करके भी अज्ञानी निर्यापकके सानिध्य में धैर्यको बढ़ानेवाले उपदेशामृतको प्राप्त नहीं कर सकता ॥४४९।। और जिसको धर्मका उपदेश नहीं मिला है ऐसा वह क्षपक श्रुतज्ञानसे रहित उक्त निर्यापकके निकट अपने चिरकाल तक पाले हुए चारित्रको मृत्युकालमें नष्ट कर डालता है ।।४५०।। समाधिमें उद्यत उस क्षपकको उपदेश के द्वारा ही दोषोंसे रोका जाता है, उपदेशसे ही उसका दुःख भुलाया जाता है और सुखी कराया जाता है । जैसे बांस जब तक अति छोटा अंकुर रूप है तब तक उसको सुखसे उखाड़ा जा सकता है किन्तु बड़ा हो जानेपर कठिनाईसे उखाड़ा जाता है, वैसे ही इन्द्रिय विषय भोजन पान आदिमें मया हुआ क्षपकका मन बड़ी कठिनाईसे रोका जा सकता है उसके लिये कर्ण प्रिय मधुर वाणोसे धर्मोपदेश देना अति आवश्यक है और ऐसा उपदेश अज्ञामी निर्यापक दे नहीं सकता ।।४५१।।
यह संसारी जीव अन्नमय है अर्थात् मनुष्य अन्न बिना रह नहीं सकता ऐसे अन्नका क्षपक त्याग कर रहा है उस समय कदाचित् अन्न के अभावमें आरौिद्र भावसे आकुलित हुआ क्षपक चार आराधनाओं में प्रवृत्ति करना छोड़ देता है ।।४५२।। हितको शिक्षा रूप उत्कृष्ट अन्न और शास्त्र श्रवण रूप पान के द्वारा क्षपक साधुको संतुष्ट तृप्त कराया जाता है उससे वह भूख प्याससे पीड़ित होनेपर भो पुनः शृद्ध ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है ॥४५३॥