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सुस्थितादि अधिकार
साधोर्वाधितस्य ददाति न । समाधिजननक्षमं ।।४५४।
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ताभ्यां प्रपीडितो बाढं भिन्नभावस्तनुश्रुतः । रोधनं याचनं दैन्यं, करुणं विदधाति सः ।।४५५ ।। पूत्कुर्यादसमाधानपानं पिबति पीडितः I मिथ्यात्वं क्षपको गच्छेद्विपद्येता समाधिना ।। ४५६ ॥
हित्वा निर्भर्त्स्यमानोऽसौ संस्तरं गन्तुमिच्छति । प्रत्कुर्वत्यय शस्तत्र त्याज्यमाने घ जायते ।।४५७॥
क्षुषया तृष्णया उपदेशमशास्त्रज्ञः,
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ज्ञास्त्रज्ञान से रहित निर्यापक भूख और प्याससे पीड़ित क्षपक साधुको समाधिशांतभावको उत्पन्न करने में समर्थ से विशिष्ट उपदेशको के नहीं सकता । अतः निर्यापक शास्त्रज्ञ होना आवश्यक है ||४५४ ||
क्षुधा और तृपासे अधिक पोड़ित हुआ क्षपक शुभ परिणामको छोड़ देता है, तथा यह होनबुद्धि सुनने वालोंको करुणा दया उत्पन्न करनेवाला रुदन करने लग जाता है, भोजन की याचना करता है तथा दीनता करता है ||४५५ ।।
असमाधान पानगृहस्थ द्वारा प्रदत्त
भूख प्यास से पीड़ित क्षपक जोरसे चिल्लाने लगता है, अर्थात् अकालमें पानी पीने लगता है । स्वयं खड़े होकर हाथसे पानी योग्य समयपर पीना समाधिपान है और इससे विपरीत पान बैठकर पानी पीना इत्यादि अयुक्त कार्य करता है । सदुपदेशके भावको प्राप्त हो जाता है अर्थात् सम्यक्त्व रत्नसे रहित होता है, और इस तरह असमासे मृत्युको प्राप्त होता है ||४५६ ||
करना - विना दिये अभाव में मिथ्यात्व
क्षपक उपर्युक्त अयुक्त कार्य करता है उस समय यदि उसका तिरस्कार किया जाय तो वह संस्तर छोड़कर भागना चाहेगा । रोने चिल्लाने वाले क्षपक को यदि संघ छोड़ देगा तो धर्मका महान् अपयश होगा। इससे स्पष्ट होता है कि शास्त्रज्ञानसे रहित निर्यापक क्षपकका नाश कर देता है ।।४५७ ।।
यहां तक नियपिक शास्त्रज्ञ न हो तो क्या क्या दोष आते हैं यह बताया । अब निर्याणक शास्त्रज्ञ होनेपर जो लाभ होता है उसको कहते हैं