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मरणकण्डिका समाधानविधि तस्य, विधत्ते शास्त्रपारगः । वीप्यते दीपितः कर्णाहुतिभियानपावकः ॥४५॥ भपकेच्छाविधानेन, शरीरप्रतिकर्मणा । समाधि कुरुते सम्यगुपायरपरैरपि ॥४५६।। वैघ्यावृत्यकरस्त्यक्तं, मा भषोरिति भाषते । निषिध्य संसृति तस्य, समाधानं करोति सः ॥४६०॥
शास्त्रों में पारंगत निर्यापक क्षपकके समाधानविधिको करता है अर्थात् जिस तरह क्षपकका मन शान्त हो वेदनानुभव कम हो उसतरह प्रवृत्ति करता है, उस भपकको दीपित ध्यान रूपी अग्निको उपदेश रूपी आहुति द्वारा पुनः दीप्त करता है, अर्थात् क्षपक धर्मध्यानमें लोन हो ऐसा उपदेश देता है ।।४५८॥
शास्त्रज्ञ निर्यापक क्षपककी इच्छा पूर्ण कर उसे रत्नत्रयमें स्थिर करता है, शरीरकी बाधायें-पीड़ा दर्द कमजोरी को मिटा देता है, तथा अन्य अन्य भले उपाय जैसे मधुर भाषण, सुदर उपकरण, प्राचीन सल्लेखना करनेवाले महापुरुषोंकी श्रेष्ठ कथायें सुनाना आदिसे भी क्षपकको समाधि करता है ।।४५९।।
वैयावृत्य करनेवाले मुनिजनोंने क्षपकको छोड़ दिया हो तो निर्यापक उसे दिलासा देता है कि तुम डरना नहीं, हम तुम्हारो सेवा करेंगे इत्यादि धैर्य वचन कहता है। जिससे संसार बढ़ता है ऐसे कार्य या परिणामका निषेध करके निर्यापक क्षपकका समाधान करता है ।।४६०।।
भावार्थ--सुश्रुषा सेवा करने वाले मनि क्षपक की भर्त्सना करते हैं कि तुम परोषह सहन नहीं करते हो, बहुत रोते चिल्लाते हो, तुम्हारेसे हम कुछ प्रयोजन नहीं रखते, तुम बहुत चंचल मन वाले हो इत्यादि । इसतरह क्षपकको तिरस्कृत होते देख निर्यापक शीघ्र उसको सांत्वना देता है भोक्षपक ! तुम अभय रहो ! तुम्हारा वैयावृत्य हम स्वतः करेंगे । ऐसा आश्वासन देकर क्षपकको रत्नत्रयमें स्थिर करना तथा जिन्होंने क्षपक्रको डाटा था उन्हें समझाना कि अहो ! यह क्षपक महापुरुष है, इस महान् सन्यासविधिको कौन कर सकता है । आपको इनके प्रति कटुवचन नहीं कहना चाहिये। इसतरह योग्य निर्यापक दोनोंको क्षपक और वैयावृत्य कारकोंको समझाता है ।