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सुस्थितादि अधिकार
[ १४१ जानाति प्रासुकं द्रव्यं गीतार्थो व्याधिनाशनम् । श्लेष्ममारुतपित्तानां विकृतानां च निग्रहम् ।।४६१।। श्रतपानं यतस्तस्मै बत्त शिक्षण भोजनम । सुत्तमानाकुमानित... तो ध्याने प्रवर्तते ॥४६२।।
छंद उपजातिगुणाः स्थितस्येति बहुप्रकारा गीतार्थमूले क्षपकस्य संति । संपद्यते काचन नो विपत्तिः संक्लेशजालं न च किंचनापि ॥४६३।।
आधारी। जानाति व्यवहारं यः, पंचमेदं सविस्तरम् । दत्तालोकितशुद्धिश्च, व्यवहारी स भण्यते ॥४६४।।
शास्त्रका ज्ञाता निर्यापक व्याधिनाशक शुद्ध प्रासुक आहारको जानता है कि अमुक बस्तु रोगनाशक है तथा जो कफ, वायु और पित्त विकृत हुए हैं उनका निराकरण करना भी अच्छी तरह जानता है ।।४६१॥
निर्यापक क्षपकके लिये श्रुतरूपी पान और हितकारी शिक्षारूप भोजन देता है जिससे वह भूखप्याससे आकुल चित्त होने पर भी ध्यानमें प्रवृत्ति करता है ॥४६२॥
इसप्रकार शास्त्रके ज्ञाता निर्यापकके चरणमूल में समाधि करनेवाले क्षपक साधुके बहुत से गुण होते हैं। उस क्षपकको योग्य निर्यापकके निकट न कोई विपत्ति आती है और न कुछ संक्लेश भाव हाता है । वह शान्तभावसे समाधिमरण में अग्रसर होता है ।।४६३।।
इसप्रकार आधारी का कथन हुआ।
व्यवहारीका कथन
जो सविस्तर पाच भेववाले व्यवहारको जानता है तथा जिसने बहुत बार शिष्यमण्डलीको प्रायश्चित्त दिया है, अपने गुरुका प्रायश्चित्त देनेका क्रम भी जिसने भलीभांति देखा है वह निर्यापक आचार्य व्यवहारी कहा जाता है ।।४६४॥