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मरणकण्डिका
प्राचारस्थः पुनर्दोषान्यतः सर्वान्विमुचति । निर्यापकस्ततः सरिराचारस्थोऽभिधीयते ॥४४४॥
।इति आचारी। धोरोऽखिलांगपूर्वजो यः कालव्यवहारवित् । प्राधारी स महाप्रज्ञो गंभीरो मंदर स्थिरः ॥४४॥ चतुरंगमगीतार्थो नाशयेल्लोकपूजितम् । संसृतौ लप्स्यते भूयो नाशितं तच्च दुःखतः ॥४४६॥ संसारसागरे घोरे दुःखनक्रकुलाकुले । दुःखतोऽटाट्यमानेन प्राप्यते जन्म मानुषम् ।।४४७।। देशोजाति कुलं रूपं कल्पता जीवितं मतिः । श्रवणं ग्रहणं श्रद्धा संयमो दुर्लभो भवेत् ॥४४८।।
जिसकारणसे आचार स्थित आचार्य उक्त दोषोंको नियमसे छोड़ देता है, उस कारणसे निर्यापक प्राचारवान् होना चाहिये ऐसा कहा है ।।४४४।। आधारवान
___ जो प्राचार्य धीर है, संपूर्ण अंग और पूर्वका ज्ञाता है समय और व्यवहार को जाननेवाला, महाप्रज्ञ, सुमेरु सदृश स्थिर मनवाला और गंभीर है बह आधारी या आधारवान् कहा जाता है ।।४४५।।
आचार्य आधारवान् नहीं है अर्थात् शास्त्रका ज्ञाता नहीं है तो क्या हानि है इस बातको बताते हैं
शास्त्रके गूढ़ सिद्धान्तका जो निर्यापक मर्मज्ञ नहीं है वह क्षपकके लोकपूजित चतुरंग अर्थात् चार आराधनाको नष्ट कर देता है। एक बार आराधनाके नष्ट हो जानेपर संसारमें बह पुनः प्राप्त होना अत्यंत कठिन है ।।४४६।।
• दुःख रूपी नोंके समुदायसे जो भरपूर है ऐसे घोर संसार सागरमें भ्रमण करते हुए बड़ी कठिनाईसे मनुष्य जन्म प्राप्त होता है ।।४४७।। मनुष्यभव प्राप्त होने पर भी योग्य देश अर्थात् जहां धर्माराधना है ऐसे देश में जन्म होना दुर्लभ है, उसमें भी सज्जाति ( जाति संकर, वीर्यसंकर आदि जिस जाति में नहीं होते वह सज्जाति कहलाती