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सुस्थितादि अधिकार
[ १३५ उधतः पंचधाचारं या कत्तु समितक्रियः । क्षपकः पंचधाचारे प्रेयंते तेन सर्वदा ॥४४०॥ अशुखमुधिं शय्यां भक्तं पानं च संस्तरम् । सहायानप्यसंविग्नान् विधत्ते च्यवनस्थितिः ॥४४१॥
छंद उपजाति-- सल्लेखनायाः कुरुते प्रकाशनां कथामयोग्यां क्षपकस्य भाषते । स्वरं पुरस्तस्य करोति मंत्रणं गंध प्रसनादि विधि च मन्यते ॥४४२।। सारणां वारणा नास्य कुरुते च्यवनस्थितः । क्षपकस्य महारंभं कंचित्कारयते गणी ॥४४३॥
जो आचार्य पांच प्रकारके आचारके पालनमें उद्यमशील है समिति क्रिया में । तत्पर है उस आचार्य द्वारा हमेशा क्षपक पंचाचारमें प्रेरित किया जाता है। अर्थात् स्वयं आचार संपन्न होनेपर ही क्षपकको उसमें प्रेरित कर सकते हैं अतः आचार्य आचारवान् होना चाहिये ।।४४०।।
जो आचार्य अशुद्ध उपधि, अशुद्ध आहार पानी, अशुद्ध वसतिका, अशुद्ध संस्तर को ग्रहण करता है वह क्षपकके लिये वैराग्य रहित अर्थात् अशुद्ध आहार आदिको ग्रहण करने वाले मुनियोंको संहायी बनायेगा । क्षपककी सेवा वैयावृत्यमें ऐसे मुनियोंको नियुक्त करता है और उससे क्षपक अपने व्रत समाधि आदिसे ज्युत हो जाता है। यह स्थिति न हो एतदर्थ आचार्य को आचारवान् होना जरूरी है ।।४४१।।।
अयोग्य, आचार विहीन आचार्य असमयमें गृहस्थोंके समक्ष सल्लेखनाको प्रगट कर देता है । क्षपकको अयोग्य राजकथा आदि कथायें सुनाने लग जाता है। मनचाहा योग्य, अयोग्य विचार क्षपकके आगे कहने लग जाता है, लोगोंको गंध पुष्प आदि लाने को कहता है इत्यादि क्षपकके परिणाम बिगड़ने वाले कार्य अयोग्य निर्यापक करता है ॥४४२।।
जो निर्यापक च्यवनस्थित भ्रष्ट है वह क्षपकको सारणा-रत्नत्रयमें लगाना, और वारणा-दोषोंसे रोकना नहीं कर पाता, क्षपकके लिये महारंभ आदि दोष जन्य कार्य जैसे महारंभ करके वसतिका बनवाना प्रादि आरंभ हिंसा रूप कुछ भी कार्य को करायेगा ।।४४३।।