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________________ ध्यानादि अधिकार [१८३ छंदः दोषकशुद्धतमा गुणवृद्धिगरिष्ठा भव्यशरीरिनिवेशित चेष्टाः । दूरनिवारितसंसृति वेश्याः कस्य सुखं जनयन्ति न लेश्याः।।२००४॥ ॥ इति लेश्याः ॥ अविध्नेन विशुशास्मा लेप्याशुद्धिमधिष्ठितः । प्रवर्तितशुभध्यानो गृह्णात्याराधनाध्वजाम् ॥२००५॥ क्वाति चितितं सौख्यं छिनत्ति भवपादपम् । इत्थमाराधना देवो भव्येनाराध्यते सदा ॥२००६॥ अर्थात् अयोगकेवली जिन सर्वलेश्या रहित हैं और शेष मनुष्य आयु पूर्णकर संपूर्ण कर्मोसे छूटकर मोक्षसुखको प्राप्त करते हैं ॥२००३।। जो शुभ ले श्यायें हैं वे गुणोंकी वृद्धि करने में प्रधान हैं, भव्यजीवोंके चेष्टानों को शांत करनेवाली हैं दूरसे ही संसृतिरूपी वेश्याको रोकनेवाली हैं ऐसी लेश्या किसको सुख उत्पन्न नहीं करती? सबको सुख उत्पन्न करतो हैं ॥२००४।। ले श्यानामा अड़तोसयां अधिकार समाप्त । आराधना फलनामा उनचालीसयो अधिकारइसप्रकार निर्विघ्नतासे जिसने आहारादि त्यागसे लेकर ध्यान तक सर्व कार्य कर लिये हैं जो ले श्याको शुद्धिसे युक्त है, शुभध्यानमें प्रवृत्त है ऐसा क्षपक मुनिराज आराधना ध्वजको ग्रहण करता है ।।२००५।। भव्यात्मा द्वारा इस आराधना रूपी देवी को आराधना सदा की जाती है, कैसी है आराधना देवी ? जो मनोवांछित सौख्यको देती है, और संसाररूपी वृक्षको काटती है। भावार्थ यह है कि जैसे कोई किसी देवीको पाराधना पुत्र सुखादिकी प्राप्ति हेतु करता है और उससे उक्त फल पाता है विद्या मंत्रादि अधिष्ठात्री देवताकी सिद्धि कर उससे उक्त कार्य पूर्ण करता है वैसे सम्यक्त्व आदि चार प्रकारको आराधनारूपी देवीको आराधना करके क्षपक मुक्ति सुखको प्राप्त करता है ।।२००६।। जिनके द्वारा सिद्धि प्रासादमें प्रवेश करानेवाली इस आराधना देवीका प्राराधन नहीं किया जाता उनके द्वारा तीन लोकमें क्या प्राप्त किया जाता है ? मानव
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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