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________________ ५८४ मरणकण्डिका यरेषाराधना देवी सिद्धि सौषप्रवेशिनी । पाराषिता न तैर्लाभः को लब्धो भुवनत्रये ॥२००७॥ यथास्यातविधि प्राप्ता विशुद्धज्ञानवर्शनाः । वहन्ति घातिदारूणि केचिध्यानकृशानुना ।।२००६॥ त्यजत्याराधका घेहं ध्यायन्तो भुवनत्रयम् । द्रव्यपर्यायसंपूरणं केवलालोकलोकितम् ॥२००६।। रत्नत्रयकुठारेण छिस्वा संसारकाननं । भवंति सहसा सिद्धा नृसुरासुरवंदिताः ॥२०१०॥ आराध्याराधनामेवमुत्कृष्टां धूतकल्मषाः । मृत्या केवलिनः सिखाः सन्ति लोकारवासिनः ॥२०११॥ पर्याय में आने का उसे क्या लाभ हुमा । कुछ भी लाभ नहीं हुआ । अर्थात् मानव जन्म पाकर जिसने चार आराधना सहित समाधिमरण नहीं किया उसको मानय जन्मका लाभ होना नहीं होने के समान है ॥२००७।। संस्तर में प्रारूढ़ कोई क्षपक मुनिराज यथाख्यात चारित्रको प्राप्तकर विशुद्धज्ञान दर्शन युक्त हो ध्यानरूपी अग्नि द्वारा पातिया कर्मरूप इंधनको जला देते हैं-सर्वज्ञ अरिहंत बनते हैं ।।२००८।। वे भव्यारमा आराधक मुनिजन केवलज्ञान दर्शन द्वारा द्रव्य और पर्यायोंसे परिपूर्ण ऐसे तीन लोकका अवलोकन कर उनका ध्यान करते हुए शरीर को छोड़ देते हैं, अर्थात् केवलज्ञानको प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं ।।२००९। आराधना करनेवाले मुनिगण रत्नत्रयरूपी कुठार द्वारा संसाररूपी जंगलको काटकर शीघ्र ही मनुष्य और सुर असुरोंसे वंदित सिद्ध हो जाते हैं ॥२०१०॥ इसप्रकार उत्कृष्ट आराधनाको करके नष्ट कर दिया कर्मोको जिन्होंने ऐसे वे क्षपक केवलशानी होकर लोकापवासी सिर होते हैं ।।२०११।। इसतरह उत्कृष्ट प्राराधनाको करनेवाले उत्कृष्ट सिद्धपद को प्राप्त करते हैं। इसप्रकार उत्कृष्ट आराधनाका फल बताया। आगे मध्यम आराधनाफा फल बतलाते हैं
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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