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________________ [ ५८५ ध्यानादि अधिकार अवशेषितकर्माणः पवित्रागममातृकाः । कामकोपाविहास्यादिमिथ्यावर्शनमोचिनः ॥२०१२।। सुखदुःखसहा वृसज्ञानदर्शनसंस्थिताः । संवृत्ताः ससमाधाना शुभध्यानपरायणाः ॥२०१३॥ विधायाराधनां बेवीं मध्यमां मुक्तविग्रहाः । शुद्धलेश्यान्विता देवाः सन्स्यनुसरवासिनः ॥२०१४।। सुखं साप्सरसो देवाः कल्पगा निविशति यत । ततोऽनंत गुण स्वस्थं लभते लवसत्तमाः ॥२०१५॥ जिनके कर्म अभी शेष हैं, जो पवित्र आगमके श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि हैं, काम कोपादि कषाय एवं हास्यादि भाव तथा मिथ्यात्वको जिन्होंने त्याग किया है। सुखदुःखको समान भावसे सहनेवाले हैं, दर्शन, ज्ञान, चारित्र में स्थित हैं, गुप्तिसे संवत्त, समाधान युक्त हैं, धर्म और शुक्ल रूप शुभध्यान में तत्पर हैं ऐसे क्षपक मुनि मध्यरूपसे प्राराधनादेवीकी आराधना करके शरीर छोड़ते हैं और शुद्ध लेश्या-शुद्ध लेश्यासे युक्त होकर अनुत्तर विमानवासी देव होते हैं ।।२०१२॥२०१३।।२०१४॥ विशेषार्थ-अनुत्तर विमान पांच हैं--विजय, वैजयंत, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्धि इनमें शुक्ल लेश्याधारी एक हाथकी अवगाहना वाले अहमिन्द्रोंका निवास है, ये नियमसे सम्यग्दृष्टि ही होते हैं इनको श्रायु सर्वार्थसिद्धि वासियोंकी तो जघन्य उत्कृष्ट तैतीस सागर प्रमाण ही है । विजयादि चार विमानवासियों के जघन्य बत्तोस सागर और उत्कृष्ट तैतोस सागर प्रमाण है । सर्वार्थ सिद्धिवाले एक भवावतारी और विजयादिक वासी दो भवावतारी होते हैं। इसप्रकार शुक्ल लेश्याके साथ मध्यम आराधना करने वाले क्षपक मुनि पंच अनुतर विमानोंमें दिव्यसुखानुभव करते हैं । षोडश स्वर्गवाले कल्पवासी देव अप्सराओंसे युक्त होकर जो सुख प्राप्त करते हैं उनसे अनंतगुणा स्वस्थ सुख अहमिन्द्र देव प्राप्त करते हैं । अर्थात् सोलह स्वर्गों तक तो अन्य ऋद्धि आदिके साथ देवांगना भी रहती हैं उन सबसे जो सुख कल्पवासियोंको मिलता है उससे अनंतगुणा सुख अहमिन्द्रोंको देवांगनाके अभाव में भी प्राप्त होता है, क्योंकि विषयको चाह रूप दाह अहमिन्द्रोंको अल्प है तथा कामेच्छा तो होती ही नहीं अतः देवांगनाके नहीं रहते हुए भी तृप्त स्वस्थ सुखी रहते हैं ॥२०१५।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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