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________________ ५८२ । मरमण्डिका शुक्ललेश्योतमाशं यः प्रतिपधं विपद्यते । उत्कृष्टाराधना तस्य जायते पुण्यकर्मणः ।।१६६६॥ शेषांशान् शुक्ललेश्यायाः पद्मायाश्च तथाषितः । म्रियते मध्यमा तस्य साधोराराषना मता ॥२०००॥ सेजोलेश्यामधिष्ठाय क्षपको यो विपद्यते । जघन्याराधना सस्य वणिता पूर्व सूरिभिः ॥२००१॥ प्रतिपद्य तपोवाही यो यां लेश्यां विपद्यते । तल्लेश्ये जायते स्वर्ग तल्लेश्यः स सुरोत्तमः ॥२००२॥ सर्वलेश्याविनिर्मुक्तः प्राणांस्त्यजति यो यतिः । प्रायषो बंधनेनेव मुक्तो याति स नि तिम् ॥२००३॥ कौन कौनसी लोश्यावाले उत्कृष्ट मध्यम तथा जघन्य आराधनाके धारक हैं यह बतलाते हैं जो क्षपक शक्ल लेश्याके उत्तम अंशको प्राप्त कर समाधिमरण करता है अर्थात् प्राण त्यागके समय जिस क्षपक मुनिकी उत्कृष्ट शुक्ल लेश्या होती है उस पुण्यात्माको उत्कृष्ट आराधना होती है ।।१६६६।। शुक्ल लोश्याके उत्कृष्ट अंशको छोड़कर शेष अंशोंसे तथा पय लेश्याके अंशोंका आश्रय लेकर सल्लेखना मरण करने वाले मुनिको मध्यम आराधना होती है ॥२०००।। जो क्षपक पीत लोश्यामें स्थित होकर मरण करता है उसकी जघन्य आराधना होतो है ऐसा पूर्वाचार्योंने कहा है ।।२००२॥ जो तपस्थो क्षपक जिस लेश्याको प्राप्त करके समाधिमरण करता है वह उसी लेश्यावाले स्वर्गमें उसी लेश्याका धारक उत्तमदेव-वैमानिक देव होता है ।।२००२।। भावार्थ-~साधुके मरते समय जो लेश्या होती है उसी लेश्याको लेकर जिस स्वर्ग में उक्त लेश्या संभव है उसी स्वर्गमें देव होता है तथा वहां आय पूर्ण होनेतक वही लेश्या बनी रहती है। जो साधु संपूर्ण लेश्याओंसे रहित होकर प्राणोंको छोड़ता है वह हमेशाके लिये आयुके बंधनसे हो मुक्त होता है वह तो परम निर्वाण मोक्षको हो प्राप्त करता है ।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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