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________________ ध्यानादि अधिकार [ ५८१ वृद्धिहानी कषायाणां संगग्रहणमोक्षयोः । अग्नीनामिव काष्ठाविप्रक्षेपणनिरासयोः ॥१६६४|| कषायो ग्रंथसंगेन क्षोभ्यते तनुधारिणाम् । प्रशांतोऽपि हृदादीनां पाषाणेनेव कर्दमः ॥१९६५।। अंतविशुद्धितो जीवो बहिग्रंथं विमुचति । अंतरामलिनो बाह्य होते हि परिग्रहम् ।।१६६६।। शिशुद्धियो अन्तः शान्तिः पदाले यहिः । बाह्य हि कुरुते वोषं सर्वमांतरदोषतः ॥१६६७।। ससंगस्याङ्गिनः कतुं लेश्याशुद्धिर्न शक्यते । अंतराशोथ्यते केन तुषयुक्तोऽपि तंदुलः ॥१९६८।। तीन कषायवाला सर्व परिग्रहको ग्रहण करता है ।।१९९३1। परिग्रहके ग्रहण करने से कषायको वृद्धि होती है और उसके त्याग करदेने से कषायकी हानि होती है, जैसे काष्टतृण आदि इंधनोंको डालनेसे अग्निकी वृद्धि होती है और इंधन को नहीं डालने से या निकाल देनेसे अग्नि शांत होती है ।।१६६४|| संसारी प्राणोको कषाय परिग्रहके संगतिसे ग्रहण करनेसे तीन होती है-जैसे सरोवर आदिका नोचे बैठा हुप्रा भी कीचड़ पत्थरके डाल देनेसे क्षुभित होता है, ऊपर आ जाता है ॥१९९५॥ यह जोव अंतरंगको विशुद्धिसे बाह्य परिसह छोड़ देता है, जो अंतरंगमें मलिन है वह बाह्य परिग्रहको ग्रहण करता है ।।१६६६।। जीवके अंतरंगकी शुद्धिसे बाह्य शुद्धि हो जाती है। क्योंकि अंतरंगके दोषके कारण ही यह जीव सर्व बाह्य दोषको करता है । आशय यह है कि मनमें परिग्रहको आसक्तिरूप अंतरंगका दोष है तो बाह्य परिग्रह संचय, हिंसा, झूठ, छल आदि सब दोष इकट्ठे होंगे । कषायकी मंदतारूप मनके परिणाम निर्मल हैं तो आपके उक्त दोष होना संभव नहीं है । यदि भीतरी परिणाम मलिन हैं तो शरीर और वचन संबंधी मलिनता होगो हो ।।१६६७॥ परिग्रहबान पुरुष के लेश्याकी शुद्धि करना शक्य नहीं है, बाहरके छिलकेसे युक्त चावल क्या किसीफे द्वारा अंदर को ललाईसे रहित शुद्ध किये जाते है ? नहीं किये जाते । वैसे परिग्रहधारीके लोश्या शुद्ध नहीं हो सकती ।।१९६८||
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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