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________________ ५८० ] मरकण्डिका तेजः पद्मा तथा शुक्ला तिस्रो लेश्याः प्रियंकराः । निर्वृत्तिमिव गृह्णाति निर्वाध सुखदायिनीं ॥। १६६०॥ कुरुष्व सुखहेतुनां सल्लेश्यार्ना विशोधनम् । यत्संगानामशेषाणां सर्वथापि विवर्जनम् ।।१६६१ ॥ श्यानां जायते शुद्धिः परिणामविशुद्धितः । विशुद्धिः परिणामानां कषायोपशमे सति ।।१२।। मंदी भवन्ति जीवस्य कथायाः संग वर्जने । कषाय बहुलः सर्व गृहोते हि परिग्रहम् ।।१६६३ ।। है वह कृष्ण लेश्यावाला व्यक्ति है । बुद्धिहीन, छलकपटी, विषयलंपट, आलसी, अधिक निद्रालु, धन धान्यमें श्रासक्त, नानापकारके आरंभ गौर परिग्रहों में मोहित जोव नील लेश्यायुक्त समझना चाहिये । शोक और भयसे युक्त, बात बात में रूसनेवाला, परनिंदा और अपनी प्रशंसा करने वाला, पर का तिरस्कार करनेवाला, इत्यादिरूप कापोत श्वाला है । हित और ग्रहित का ज्ञाता, दया, दान, पूजामें रत कार्य अकार्यको जाननेवाला पोत लेश्या संयुक्त है। त्यागी, क्षमाशील, भद्रप्रकृति, साधुकी सेवापूजा, दानादि रतजोव पद्म लेश्यायुक्त है । और सर्वजन एवं सर्वक्षेत्र में समता भाववाला, निदान रहित रागद्व ेष रहित जीव शुक्ल लेश्यावाला जानना चाहिये । इसप्रकार इन लेश्याधारियोंके कतिपय चिह्न या पहिचान यहां बताये हैं। इनमें कृष्णादि अशुभ लेश्या त्याज्य है और पीतादि तीन लेश्या ग्राह्य हैं । शुभलेश्यायें - पीत, पद्म और शुक्ल लेश्या शुभ प्रशस्त प्रियंकर हैं । शुभलेश्याको साधुजन ग्रहण करते हैं जैसे निर्बाध सुखदायी मुक्तिको ग्रहण करते हैं ||१०|| हे साधो ! सुखकारक शुभ लेश्याओंकी तुम विशुद्धि करो प्रर्थात् आगे आगे परिणाम अधिक निर्मल बनाओ । परिणाम शुद्धिमें जो बाधक हैं ऐसे संपूर्ण परिग्रहोंका तुम सर्वथा त्याग करो ।। १९९१|| क्योंकि परिणामोंकी विशुद्धि से लेश्याओंकी शुद्धि होती है और परिणाम शुद्ध तब होते हैं जब कषाय उपशमित होती है ।। १६६२ ।। तथा जीव की कषाय उपशमित मंद तब होती है जब परिग्रहों का त्याग हो जाता है, क्योंकि
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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