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मरणकण्डिका
कोदंडलगडादण्ड शवशय्यापुरस्सरम् । कर्तव्या बहुधा शय्या शरीरक्लेशकारिणा ॥२३२॥ काष्टाश्मतण भूशय्या दिवानिद्रा विपर्ययः । दुर्धराभ्राधकाशादि योग त्रितयधारणम् ॥२३३॥ दन्तधावन कण्डति स्नान निष्ठीवनासनम् । यामिनीजागरो लोचः कायक्लेशोयमीरितः ॥२३४॥ सूत्रानुसारतः साधोः कायक्लेशं वितन्यतः । चितिताः सम्पदः सर्वाः सम्पद्यन्ते करस्थिताः ॥२३॥
किया है और हिन्दी में जंघा तथा कटि भाग को समान करके बैठना अर्थ किया है, इससे विपरीत अर्थात् जंपा और कटियाग सम न होबार निषम रहना असमस्फिक् आसन है। मुर्गेको तरह आकृति कर बैठना कुक्कुटिका आसन है । इन सब आसनों द्वारा काय में कष्ट होता है अत: इस तपको कायक्लेश तप कहते हैं । आगे लेटकर किये जाने वाले कायक्लेश का वर्णन करते हैं ।
धनुषवत् शयन दंड शयन कहलाता है, दण्ड के सदृश शयन लगड शयनअवयवों को संकुचित करके शयन करना, शवशय्या-शव-मुर्दे के समान चित सोना । इसी तरह अनेक प्रकार की शय्या से सोना कायक्लेशकारी शय्या को करना कायक्लेश तप है ।।२३२॥
काष्ठ पर गयन, पाषाण पर शयन, दिन में नहीं सोना, दुर्धर अभावकाश आदि तीन योगों को धारण करना कायक्लेश है ।।२३३।।
भावार्थ-शीत ऋतुमें खुले मैदान में अथवा नदी किनारे आदि स्थानों पर ध्यानसे दिन मास आदि कालतक स्थित होना अभावकाश योग कहलाता है । ग्रीष्मकालमें पर्वतपर ध्यान करना ग्रीष्मयोग है । वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे स्थित होकर ध्यान करना वृक्षमुलयोग है। इन क्लेशोंको शान्त भाव से एवं स्वेच्छासे सहना कायक्लेश तप कहलाता है।
दातोंन नहीं करना, खजली, स्नान तथा थूकने का त्याग, रातमें जागते रहना, और केशलोच ये सब कायक्लेश कहे गये हैं ॥२३४।। जो साधु सूत्र के अनुसार कायक्लेश करता है उसके सम्पूर्ण चिन्तित संपदायें हस्तगत होती हैं ।।२३५।।