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मरण कण्डिका
न पश्यत्यंगनारूपं ग्रीष्मार्कमिव यश्चिरम् । क्षिप्रं संहरते दृष्टि तस्य ब्रह्मवतं स्थिरम् ।।११५८ ।। गंधे रूपे रसे स्पर्शे शब्दे स्त्रीणां न सज्जति । जातु यस्य ब्रह्मचर्यमखंडितम् ॥ ११५६।।
मनस्तस्य
छंद - मालिनी---
द्विपमिय हरिकांता मंक्षु मीनं बकीय | भुजंगभिव मयूरी भूषिकं वा बिडाली । गिलति निकटवृत्तिः संयतं निर्दया स्त्री । निकटमिति तदीयं सर्वदा वर्जनीयं ॥। ११६० ॥ छंद - मालिनो—
प्रथयति भवमार्ग मुक्तिमार्गं वृणक्ति । दवयति शुभबुद्धि पापबुद्धि विधत्ते । जनयति जनजल्यं श्लोकवृक्षं लुनीते । वितरति किसु कष्टं संगतिनगनानाम् ।। ११६१ ।। इति स्त्रीसंसर्ग दोषाः ।
जो स्त्रियोंके रूपको ग्रीष्मकालीन सूर्यके समान चिरकाल तक नहीं देखता है शीघ्र ही अपनी दृष्टि उसरूपसे हटा लेता है उसका ब्रह्मचर्य स्थिर होता है ।। ११५८ ।१ भावार्थ – जिसप्रकार जेष्ठ मासके मध्याह्न कालीन सूर्यको कोई भी नहीं देख पाता । कदाचित् देख लेवे तो तत्काल वहांसे दृष्टि हटा लेता है उसीप्रकार जो पुरुष स्त्रीको देखता ही नहीं और कदाचित् दृष्टि पड़े तो तत्काल अपनी दृष्टिका संकोच कर लेता है । वही अखंड ब्रह्मव्रतधारी होता है । फिर राग भावकी मुख्यता है ही । यदि मन में स्त्री रूपको देखनेका अभिप्राय है और बाहर से केवल दृष्टि हटाता है उससे लाभ नहीं है ।
जिस पुरुषका मन स्त्रियोंके मनोहर गंध, रूप, रस, स्पर्श और शब्द में कभी भी नहीं जाता उस पुरुषका ब्रह्मचर्य अखंडित रहता है ।।११५६ ॥
अब स्त्री संसर्गसे होनेवाले दोषोंके वर्णनका उपसंहार करते हुए कहते हैंजिसप्रकार निकटमें आये हुए हाथीको सिंहनी वा जाती है, समीपमें आये हुए मत्सको बगुली शीघ्र हो निगल जाती है, मयूरी सर्पको मार डालती है, बिल्ली चूहेको खा जाती है ठीक इसीप्रकार निर्दयी स्त्री निकटमें आवे तो संयत मुनिका संयम नष्ट कर डालती है इसलिये हमेशा ही उस स्त्रोकी निकटता त्याज्य है छोड़ने योग्य है, ।। ११६० ।। स्त्रियोंकी संगति संसार मार्गको विस्तृत करती है और मोक्षमार्गको नष्ट