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________________ [ ३२५ अनुशिष्टि महाधिकार भुजंगीनामिव स्त्रीणां सदा संगं जहाति यः । तस्य ब्रह्मन्नतं पूतं स्थिरीभवति योगिनः ॥११५५॥ अविश्वस्तोत्रमत्तो यः स्त्रीवर्ग सकले सदा । पावज्जीवमसौ पाति ब्रह्मचर्यमखंडितम् ॥११५६।। प्रहं वर्ते कथं कि मे जनः पश्यति भाषते । चिता यस्येशी नित्यं दृढब्रह्मवतोऽस्ति सः ॥११५७।। - - -- -- -. . . - आर्यिकाका वेष दिलाकर वे सभी जिस पर्वतपर ध्यानारूढ़ कूपार मुनि थे, वहां पाई, वीरवती तो पर्वतके नीचे ठहर गयी और अन्य स्त्रियां ऊपर जाकर मुनिसे कहती हैं कि भो योगीश्वर ! हम सब आर्यिकायें तो यहां दर्शनार्थ आ चुकी किन्तु एक आयिका पर्वतपर चढ़ने में असमर्थ है आप कृपा करके उन्हें दर्शन देखें । मुनि धर्म वात्सल्यसे नीचे आये, उनके आते ही गणिकाने उन्हें हावभाव विलास द्वारा अपने धशमें कर लिया। इसतरह वह कूपार यति उस गणिका वीरवतोके निमित्तसे भ्रष्ट होगये। कथा समाप्त । जो नागिनीके समान स्त्रियोंका संग सदा छोड़ता है उस योगीके पवित्र ब्रह्मचर्य स्थिर होता है ।।११५५ जो सदा ही समस्त स्त्री वर्ग में विश्वास नहीं करता सदा उनसे सावधान रहता है वही पुरुष अपने ब्रह्मचर्यको यावज्जीवन पर्यंत अखण्डित रूपसे सुरक्षित रखता है ।।११५६॥ मैं किस प्रकार चाल चल रहा हूँ ? मेरे को जन किस दृष्टि से देखते हैं, मेरे विषय में जनसमुदाय क्या कहता है, इसप्रकारको चिता विचार जिस पुरुषको नित्य रहती है वही दृढ़ ब्रह्मचर्य व्रतधारी है ।।११५७।। भावार्थ-जन समुदायसे मेरा अपवाद न हो, मेरा अपमान, धर्मका अपमान है, मैंने सर्वोत्कृष्ट प्रत धारण किया है उसमें किसी प्रकार परिवर्तन तो नहीं हो रहा ? इन बातोंको जो सोचेगा जनापबादसे जिसे लज्जा आती है वही अपने ब्रह्मचर्यको सुरक्षित रखेगा ! जिसे इन बातोंकी परवाह नहीं, लोक कुछ भी कहें, इसपर शरम नहीं है, धर्मकी अप्रभावनाका कुछ भान नहीं है वह स्वच्छन्द आचरण कर अपने ब्रह्मचर्य में शिथिल होगा।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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