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________________ अनुशिष्टि महाधिकार [ ४२३ एकासत्यसहस्राणि माया नाशयते कृता । मुहर्तेन तुषाणोष नित्योहगविधायिनी ॥१४५६।। मित्रभेदे कृते सधः कार्य नश्यति मायया। विषमिमिव क्षोरं समायं नश्यति व्रतम् ॥१४५७॥ स्त्रंगपंढत्वतरश्च नीचगोत्रपराभवाः । मायादोषेण लभ्यते पुंसा जन्मनि जन्मनि ॥१४५८।। यः क्रोधमानलोभानामाविर्भायोस्ति मायिनः । संपद्यन्तेऽखिला दोषास्ततस्तेषामसंयमम् ॥१४५६॥ सप्तवर्षाणि नि:शेष कुम्भकारेण कोपिना। भस्मितं भरतग्रामशस्यं प्राप्तेन वंचनां ॥१४६०॥ एक मायाचारी करनेपर उसके द्वारा हजारों सत्यका नाश हो जाता है। यदि उस मायाचारको बार बार किया जाय तो शरीरमें प्रविष्ट कांटा या सलोके समान नित्य ही उद्वेग--संतापको करती है ।।१४५६।। मायाके द्वारा मित्रका भेद हो जाता है अर्थात् अपने साथ माया छल किया जा रहा है यह देखकर मित्रजन तत्काल मित्रताको छोड़ देते हैं और मित्रकी सहायता समाप्त होनेपर सब कार्य समाप्त हो हुआ समझना चाहिये । उस मायाचार युक्त पालन किया व्रत विषसे मिले दूधके समान नष्ट हो जाता है ।।१४५७।। माया दोषसे इस जीवको भव भबमें स्त्री पर्याय, नपुसकत्व, तिर्यंच पर्याय, नीच गोत्र और पराभव प्राप्त होता है ।।१४५८।। मायावीके क्रोध, मान और लोभोंकी जिसकारणसे उत्पत्ति होती है उस कारण से उन जीवोंके संपूर्ण दोष उत्पन्न होते हैं फिर उससे असंयमको प्राप्त होता है । भाव यह है कि क्रोध, मान आदि मायावीके अवश्य हो उत्पन्न होते हैं और जब ये क्रोधादि उत्पन्न हुए तो सब ही दोष उत्पन्न हुए ऐसा समझना चाहिये क्योंकि संपूर्ण दोषोंका कारण क्रोध आदि कषायें हैं और मायावी में ये कषायें होती हैं और इसतरह दोषोंको उत्पत्तिसे असंयमको प्राप्त होता ही है ।।१४५६।। कुपित हए कुभकारने भरत नामके ग्राममें सात वर्षों से संचित हुए धान्यों को मायासे युक्त होकर भस्म कर डाला था ।।१४६०।।
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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