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परणकण्डिका विदधानोऽपि चारित्रं मायाशल्येन शल्यितः । न धृति लभते कुत्र शल्येनेव धनद्धिकः ॥१४५३॥ द्वेषमप्रत्ययं निदा पराभूतिमगौरवम् । सर्वत्र लभते भायी लोकद्वयविरोधकः ॥१४५४॥ अरतिर्जायते मायो बंधूनामपि दारणः । महान्तमश्नुते दोषमपराधनिराकृतः ॥१४५५।।
(मार दिया) जब यह वार्ता मंत्री आदिको विदित हुई तब वे अत्यंत विचारमें पड़ गये कि यह हाल चक्रोको कैसे सुनाया जाय । फिर भी किसी बहाने से चक्री तक यह वार्ता पहुंचाई। प्रथम सगरने बहुत शोक किया किन्तु फिर वैराग्य रूप अमृत जलसे शोकाग्नि को शांत कर उसने जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर ली। अब उस मित्रवर देवका मनोरथ पूर्ण हुआ । उसने सगर मुनिराजकी तीन प्रदीक्षणा दी नमस्कार किया और सर्व सत्य वृत्तांत कह दिया । सगर अब संपूर्ण मोह मायासे मुक्त हो चुके थे उन्हें कुछ संताप नहीं हुआ। वैराग्य तथा ज्ञान शक्तिसे उन्होंने अपना कल्याण कर लिया। इसप्रकार बलके अभिमानके कारण चक्रीके सब पुत्र नष्ट होगये थे ।
___कथा समाप्त । मायादोषका कथन--
__मुनि चारित्रको पालन करते हुए यदि माया शल्यसे पोड़ित है सहित है तो वह कहींपर भी धैर्य-स्थैर्य-सुखको प्राप्त नहीं करता है, जैसे धन संपन्न है किन्तु शरीर आदिमें शल्य है तो उस शल्यके कारण पीडित वह धनिक कहीं भी सुख धैर्यको नहीं पाता ॥१४५३।।
मायाचारी व्यक्ति द्वेष, अविश्वास, निंदा, तिरस्कार और लघुता-नीचताको सर्वत्र पाता है वह दोनों लोकोंका विरोधो है अर्थात् दोनों लोकोंमें उसका कोई विश्वास नहीं करता अथवा उसको उभयलोकमें सुख नहीं मिलता है ।।१४५४॥
मायावो पुरुष सबको अप्रिय लगता है वह बंधुजनोंको भी दुःखदायी प्रतीत होता है, वह अपराध रहित होनेपर भी महादोषी माना जाता है अथवा मायाके कारण वह महादोषको प्राप्त हो जाता है ।।१४५५।।