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________________ ३७२ ] मरणकण्डिका छंद-रथोद्धतास्वर्गभोगिनरनाथकामिनीः श्रेष्ठिचक्रिवलसार्थवाहिनां । भोगभूतिमधियो निदानकं कांक्षतो भवतिभोगकारकम् ॥१२७६॥ वनमें आकर मासोपवास एवं प्रतिमा योग धारण किया। मथुराके राजा उग्रसेनको मुनिकी तपस्या ज्ञात हुई तब वह बड़ी भक्तिसे उनके दर्शन करने के लिये बन में गया । राजाने नगर में कहलाया कि बशिष्ठ मुनिके मासोपवासका पारणा मेरे यहां हो होगा। पारणा का दिन आया, महाराज नगर में प्रविष्ठ हुए अन्यत्र पड़गाहन नहीं होनेसे वे राज. महलमें आये किन्तु उस दिन राजा किसी राज्य संबंधी महत्वपूर्ण कार्य में उलझा हुआ था, अतः आहारकी बातको भूल गया । मुनिराज बिना आहार किये वनमें चले गये और पुनः एक मासका उपवास धारण किया । पुनः आहारके लिये आये किन्तु राजा उन्हें आहार नहीं दे पाया । ऐसा तीन बार हुआ । अबकी बार मुनि अत्यंत क्षीण शक्ति हो चुके थे, मार्गमें लोटते हुए चक्कर आनेसे गिर पड़े। तब नागरिक लोग दुःखी होकर कहने लगे कि अहो ! यह हमारा राजा बढ़ा निर्दयी हो गया है । देखो! हमको आहार नहीं देने देता और आप भी नहीं देता इत्यादि । इस वार्ताको वशिष्ठ मुनिने सुना, उनको राजापर अत्यधिक क्रोध आया और क्रोधमें आकर निदान कर डाला कि मैं इसी उग्रसेनका पुत्र होऊँ और राजाको कष्ट देऊ । इसी भाव में उनको मृत्यु हुई राजाके यहां जन्म हुआ । बालकका नाम कंस रखा । इसने आगे जाकर उग्रसेनको बहुत यातना दी । इसप्रकार अप्रशस्त निदानसे वशिष्ठ मुनिकी तपस्या दूषित हुई । कथा समाप्त । भोगकृत निदानमेरेको स्वर्ग मिल जाय मैं धरणेन्द्र बन जाऊँ, राजा बन, मुझे इष्ट स्त्री मिल जाय, नगर सेठ, चक्री, सेनापति, व्यापारियों में प्रमुख ऐसे पद मुझे मिलने चाहिये, भोग एवं वैभव प्राप्त होने इसप्रकार मूर्ख व्यक्ति कांक्षा करता है उसकी इसतरह की यांच्छा भोगकृत निदान कहलाता है ।।१२७६।। ___ जो पुरुष निदान करता है वह संयम तप पराक्रमका धारी भी हो तथा भली प्रकारसे गुप्तियोंका पालन करने वाला हो तो भी उस निदान दोषसे सुदुस्तर ऐसे भव
SR No.090280
Book TitleMarankandika
Original Sutra AuthorAmitgati Acharya
AuthorJinmati Mata
PublisherNandlal Mangilal Jain Nagaland
Publication Year
Total Pages749
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Principle
File Size17 MB
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