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अनुशिष्ट सहा
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निषेधु सिद्धिलाभस्य विभवस्येक कल्मषम् । निवानं त्रिविधं शस्तमशस्तं भोगकारणम् ॥१२७२॥ नत्वं सत्वं बलं वीर्य संहति पावनं कुलं । वृत्ताय याचमानस्य निदानं शस्तमुच्यते ॥१२७३।। अहवगणधराचार्य सुभगादेय तादिकं । प्रोक्तं प्रार्थयते शस्तं मानेन भववर्धकम् ॥१२७४॥ प्रशस्तं याचते को मरणेऽन्यवधं कुधीः । अयाचतोग्रसेनस्य वसिष्ठो हननं यथा ॥१२७५।।
निदान शल्यमुक्ति लाभ जिससे होता है ऐसे रत्नत्रयका जो निषेधक है, उस निदान शल्यके तीन भेद हैं-प्रशस्त निदान, अप्रशस्त निदान और भोगकृत निदान ॥१२७२।।
प्रशस्त निदानपूर्णचारित्र पालनके लिये, पुरुषत्व-उत्साह, सत्व-धैर्य, शरीरको दृढ़ता रूप बल, योतिराय कर्मका क्षयोपशमरूप वीर्य, उत्तम संहनन, उच्च कुल ये सब मुझे मिल जाय, इसप्रकार याचना करनेवालेके प्रशस्त निदान होता है ।।१२७३।।
अप्रशस्त निदानअभिमानके वश होकर मैं तीर्थंकर बन जाऊँ, गणधर आचार्य प्रादिका पद मुझे प्राप्त हो, मैं सुदर बनूं। मेरे वचन एवं आज्ञा सभी मानने लग जाँघ इत्यादिरूप प्रार्थना करना भवको बढ़ानेवाला अप्रशस्त निदान कहलाता है ।।१२७४।।
तया मरणके समय क्रोधित होकर खोटो बुद्धि वाला अन्य व्यक्तिका वध हो जाय इसप्रकार इच्छा-याचना करता है वह भी अप्रशस्त निदान है । जैसे वशिष्ठ मुनिने उग्रसेन राजाको मारने का निदान किया था ।।१२७५।।
वशिष्ठ मुनिकी कथाबशिष्ठ नामका जटाधारी तपस्वो था। उसे एक बार समीचीन जैनधर्मका उपदेश मिला और कालादि लब्धिको प्राप्त होकर वह जंन दिगंबर मुनि बन गया । अब उन्होंने कठोर तपश्चरण करना प्रारम्भ किया । किसी दिन मथुरा नगरीके निकट