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सुस्थितादि अधिकार दशधा स्थितिकल्पे वा, सुस्थितो गतदूषणे । आचारी कथ्यते युक्तः सूरिरागममातृभिः ॥४३६ । अचेलकत्वमुद्दिष्ट, शय्यशाहारवर्जने । राजपिडविवजित्वं, कृतिकर्म प्रवर्तनम् ॥४३७॥ व्रतप्ररोहणाहत्त्वं, ज्येष्ठत्वं च प्रतिक्रमः । मासकास्थितिः पर्यास्थितिकल्पा दशेरिताः ॥४३८।।
प्रथवा दोष रहित दश प्रकारके स्थितिकल्पमें जो स्थित रहता है तथा तीन भूप्ति और पांच समिति रूप अष्ट प्रवचन मातासे युक्त होता है वह आचार्य आचारवान कहा जाता है ।।४३६।।
दश प्रकारका स्थितिकल्प बतलाते हैं
अचेलकत्व१ उद्दिष्ट शय्यात्याग२ उद्दिष्ट आहार त्याग३ राजपिंड त्याग४ कृतिकर्म प्रवृत्त५ व्रतारोपण अर्हत्व६ जेष्ठत्व७ प्रतिक्रम मासैक वासिता और पर्या१० ये दश स्थितिकल्प हैं ।।४३७॥४३॥
विशेषार्थ-अचेलकत्व-वस्त्रका अभाव चेल वस्त्रको कहते हैं यह उपलक्षण है इससे संपूर्ण पदार्थोंका त्याग यह अर्थ फलित होता है, विशमो, सूती, ऊनी वृक्षके वष्कल अजिन-चर्म इत्यादि शरीरके आच्छादनके कारणभूत पदार्थ मात्रका त्याग अचेलक शब्दसे लिया जाता है । मुनिके इस गुणसे चौरका भय नहीं होता, वस्त्रको धोना सुखाना, फटने पर सोना, नये वस्त्र की याचना इत्यादि आरंभ हिंसा दोनता को करने वाले दोष उत्पन्न नहीं होते । वस्त्र रहित होनेसे वायुवत् निःसंग सर्वत्र अप्रतिहत विहार होता है, ध्यानमें स्थिरता वस्त्र त्यागसे होगी यदि वस्त्र रहेगा तो वायु आदिसे उसको सम्हालने में चित्त चंचल हो उठेगा । यह मेरा वस्त्र बहुत सुंदर है इत्यादि रूप अभिमान वस्त्रके त्यागी मुनिको नहीं होता । ऐसे और भी बहुत से गुण वस्त्र त्यागसे प्राप्त होते हैं । यह अचेलकत्व स्थितिकल्प है ।
उद्दिष्ट शय्या त्याग-अपमे निमित्तसे बनायी गयो वसतिका का त्याग करना उद्दिष्ट शय्यात्याग स्थितिकल्प है । उद्दिष्ट आहार त्याग-अपने निमित्तसे बनाया गया पाहार ग्रहण नहीं करना उद्दिष्ट आहार त्याग नामा तीसरा स्थितिकल्प है।