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सुस्थितादि अधिकार
प्राचारी सरिराधारी, व्यवहारी प्रकारकः । पायापायगुत्पीडित सुखकार्यपरिस्रवः ॥४३३॥ एभिनियपिकः सूरि, गुणरष्टभिरन्वितः । वातुमाराधनामोशः, पृथुकोतिरुपेयुषे ॥४३४।। प्राचारी स मतः सूरि, रतिचारनिराकृतः । चर्यते चार्यते येन, पंचाचारोऽनुमन्यते ॥४३५॥
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सुस्थित नामका सतरहवां अधिकार
जिस आचार्यका आगंतुक मुनि आश्रय लेता है उसमें कोन कौनसे गुण रहते हैं ऐसा प्रश्न होनेपर उनके आठ गुणोंको बताते हैं
आचारवान्, आधारवान्, व्यवहारवान् प्रकारक (कर्ता) आयापायहम्, उत्पीड़क, सुखकारी और अपरिस्रावी ।।४३३।।
__इन आठ गुणोंसे समग्वित आचार्य निर्यापक होता है वह विशाल कीत्ति संयुक्त होता है अपने निकट आगत साधुको आराधना-समाधिमरणको देने के लिये ऐसा निर्यापक ही समर्थ होता है ।।४३४।। आचारवान्
जो अतिचार रहित पत्राचार को स्वयं पालन करता है और दूसरोंसे पालन कराता है वह आचार्य आचारवान् कहा जाता है ।।४३५।।