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सल्लेखनादि अधिकार
छंद रथोद्धता
स प्रणम्य गणनायकं श्रिथा, भाषते निशि विवाथ संश्रितः । आगमस्य विनयेन कारणं, सिद्धये न विनयं विना किया ||४३१॥ छंद शालिनी
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विश्राम्पास शल्यमुद्धतु कामः श्रान्तः स्थित्वा वासरं तं द्वितीये । तथाचार्य ढोकते वा तृतीये न प्रारब्धं साधयो विस्मरन्ति ॥ ४३२ ॥ ॥ इति मार्गरपासूत्रम् ॥
विशेषार्थं -- आगत मुनि आलोचना नहीं करता, उद्गम, उत्पादना एषणा दोषों से युक्त आहार लेता है तो उसके साथ आचार्य रहता है या अन्य मुनियों को रहने के लिये अनुमति देता है वह भी आगत मुनिके समान सदोष माना जायगा । आगत मुनि दोषों में अशुद्ध है तथा आलोच्ना द्वारा अपनी शुद्धि भी नहीं करता तो उसे संघ से अलग करना ही उचित है अन्यथा उसके साथ रहने से स्वयं आचार्य तथा संघ उसीप्रकार उद्गम आदि दोषों से युक्त आहार ग्रहण करने लग जायेंगे ।
आगत मुनि आचार्य को मन, वचन और काय से नमस्कार कर दिन अथवा रात में उनके आश्रय में रहकर विनयपूर्वक अपने आने का कारण बतलाता है, ठीक हो है, क्योंकि विनय के बिना की गयी क्रिया कार्य सिद्धि के लिये नहीं हुआ करती हैं ।। ४३१ ।। जो अपने शल्य को दूर करना चाहता है, बिहार से थका हुआ है ऐसा वह आगल मुनि पहले दिन विश्राम करता है पश्चात् दूसरे या तीसरे दिन वहां के आचार्य के समीप उपस्थित होता है । ठीक ही है, क्योंकि प्रारंभ किये हुए कार्य को साधुजन भूलते नहीं हैं अर्थात् जिस कार्य के लिये आये हैं उसका विस्मरण नहीं होने देते, यहां आगत मुनि का कार्य आचार्य निकट अपना अभिप्राय निवेदन करना एवं आलोचना करना है ||४३२||
॥ मार्गणा सूत्र समाप्त (१६) ।।