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मरएकण्डिका देयः संघाटकोऽवश्यमागताय दिनत्रयम् । प्रसंस्तुतस्य यत्नेन, शय्यासंस्तरकावपि ॥४२८॥ संघाटको न दातव्यो, नियमेन ततः परम् । यते एक्तचरित्रस्य, शय्यासंस्तरकावपि ॥४२६।। गुलानस्य यतेः सूरे, रनिराकृतदूषणम् । उद्गमोत्पादनाहार वोषशुद्धिर्न जायते ॥४३०।।
शोधन कर उपकरणादि को उठाता रखता है या नहीं इन क्रियाओं में जीवों की सुरक्षा करता है या इधर उधर फेंक देता है । वचन कसे बोलता है गृहस्थ जैसे या मिथ्यात्व वर्द्धक वचन तो नहीं बोलता इत्यादि रूपसे देखते हैं । अन्तमल का विसर्जन प्रासुक भूमि में गूढ़ स्थान पर करता है या नहीं, आहार को नव कोटि से परिशुद्ध करता है अथवा नहीं ! इसतरह परस्पर में परीक्षण करते हैं।
आगत मुनि संघनायक का आश्रय कर निवेदन करता है कि हे गुरुदेव ! सहाय देकर मुझे अनुगृहीत कीजिये | इसप्रकार कहने पर उक्त मुनि के लिये तीन दिवस तक अवश्य ही संघ में संमिलित कर लेना चाहिये, तथा अभी प्रयत्न से परीक्षण नहीं हुआ है तो भी शय्या संस्तर उसे देना चाहिये ।।४२८॥
किन्तु तीन दिनों के बाद उसे संघाटक (संघमें आश्रय) नियम से नहीं देना चाहिये भले ही युक्त चारित्र वाला मुनि हो, उसे तीन दिन के बाद शय्या संस्तर भी नहीं देना चाहिये ।।४२९।।
भाव यह है कि आगंतुक मुनि का आचरण योग्य है किन्तु उसकी पूर्ण परीक्षा नहीं हो पायी है तो ऐसी स्थिति में उसे संघाटक शय्यासंस्तर नहीं देना चाहिये । यदि आगत मुनि को तीन दिन में ज्ञात कर लेते हैं कि यह गण में रहने योग्य नहीं है तो उसे सहायता होगी ही नहीं, किन्तु जो योग्य है किन्तु पूर्ण परीक्षा नहीं हुई तो उसे आगे संघाटक नहीं देते हैं ।
___ यहां पर प्रश्न होता है कि इस तरह परीक्षा का प्रयत्न क्यों करते हैं ? विना परीक्षा के संघाटक क्यों नहीं करते ? आगे इसी को बताते हैं-आगत मुनि के दोषों को दूर कियो बिना ही उसे ग्रहण किया जाय तो आचार्य के उद्गम, उत्पादन और आहार संबंधी एषणा दोष इन दोषों को शुद्धि नहीं होती ।।४३०॥